पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६३९

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पढ़ , कर, उठे, बैङ, काग्, लग्, चलू जैसे रूपों में सभी धातुएँ हलन्त या व्यञ्जनान्त हैं ! यानी हम जिन्हें अकारान्त कहते हैं, उन्हें ही ‘भाषा-विज्ञान के दिग्गज व्यञ्जनान्त कहते हैं ! हमें तो ‘पढ़ता है' आदि में पढ़' आदि रूप अकारान्त दिखाई देते हैं; इस लिए इम इन्हें अकारान्त कहते हैं; पर भाषाविज्ञान वाले सोचते हैं कि संस्कृद में *qट्’ अादि व्यञ्जनान्त हैं, तब हिन्दी की भी पढ़' आदि धातुएँ व्यञ्जनान्त ही होनी चाहिए-पढ़, कर, बुलु आदि । । यही नहीं, हिन्दी के सभी अकारान्त शब्द ( संज्ञा, विशेषण, सर्वनाम तथा अव्यय ) भाषा-विज्ञान वालों ने व्यंजनान्त ही माने हैं—राम्, सुन्दर , इस , उस्, जब्बू , तबू अादि । इस प्रकार इन शब्दों को व्यञ्जनान्त मानने का क्या कारण है, पता नहीं ! इमें तो कवि पुष्पदन्त, चन्द, तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, खुसरो आदि की कविताओं में कहीं भी इलन्त जैसी चीज का कोई प्रभास भी नहीं मिला और न भारतेन्दु तथा आचार्य द्विवेदी आदि ने ही कहीं ऐसे शब्दों का प्रयोग व्यंजनान्त किया है। यही नहीं, थे भाषाविज्ञानी भी ( उन शब्द को व्यञ्जनान्त मान कर भी ) प्रयोग सदा अकारान्त ही करते ई ! कोई नहीं लिखता- *सार पात् खा कर, जी लेना अच्छा; पर कृपण भूख की खुशामद् बुरी !” कहीं ऐसी इबारत देखी ? सब साग पात' जैसे अकारान्त ही प्रयोग करते हैं। तब फिर इन्हें व्यञ्जनान्त बतलाना कैसा हैं। ऐसा—जैसे कि कोई कहे कि मेरी मा बाँझ है ! | हिन्दी में-हिन्दी के गठन में—न्यंजनान्त-जैसी कोई चीज है ही नहीं ! यहाँ तक कि संस्कृत के तद्रूप शब्द जो हिन्दी में गृहीत हैं, उन की भी व्वलनान्तता हट्टा दी गई है। 'राजन् न ले कर हिन्दी ने 'राजा' लिया--- राजा' को अपना ‘प्रातिपादिक’ बनाया; इस लिए कि व्यञ्जनान्त शब्द स्वीकार नहीं । राजन् को मैं ने देखा प्रयोग कभी नहीं हुआ; - राजा को मैं ने देखा होता है। हिन्दी ने मूल शब्द 'राजन्’ न ले कर संस्कृत का प्रथमान्त “राजा' इसी लिए लिया कि यहाँ सब कुछ स्वरान्त चलता है। इसी तरह 'चर्मन्’ ‘झम्मन्’ आदि के न्’ अलग कर के चर्म' कर्म जैसे अकारान्त रूप कर लिए गए। “मिकुमार वर्मन् भाषाविज्ञान के पण्डित हैं नहीं; ‘रामकुमार वर्मा हैं। हॉ, संस्कृत-प्रत्ययों के ‘न्’ को जरूर न सुस्वर प्रायः नहीं किया जाता | लिखा जाता है—‘भाग्यवान छात्र' धनवान् व्यापारी आदि । परन्तु ब्रजभाषा तथा अवधी अादि में प्रत्यय