पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६४०

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की भी न्’ सुस्वर कर दिया जाता है—धनवाननि सौं पटती नहीं मेरी । खड़ी बोली की भी पुरानी कविता में यही बात है। । कहने का मतलब यह कि जब हिन्दी संस्कृत तद्रूप ( तत्सम ) शब्दों के भी अन्य व्यंजन काट कर स्वरान्त रूप ग्रहण करती है, तब वहाँ के अकारान्त शब्दों को भी यहाँ व्यञ्जनान्त (इलन्त) बेतलाना कैसी ऊँची उड़ान है ! यदि कहा जाए कि हिन्दी में अन्त्य 'अ' का उच्चारण इतना हलका होता है कि मालूम ही नहीं देता; इस लिए वैसे शब्दों को व्यंजनान्त मान लिया गया; तो हम पूछे गे कि पुत्र’ ‘कलत्र' आदि में भी हिन्दी अन्त्य स्वर का उच्चारण नहीं करती है क्या ? ‘साग विदुर घर खायों में क्या ‘लाग सुनाई देता है ? र, यह मान लेने पर भी कि हिन्दी में अन्त्य 'अ' का हलका उच्चार होता है; अकारान्त शब्दों को व्यंजनान्त कैसे कह दिया जाए गा ? हिन्दी प्रकृति के विरुद्ध यह बात है। हलके उच्चारण के कारण उसे ह्रस्वतर छह लीजिए, यदि जरूरत है। हृस्व, दीर्घ, प्लुत, ये तीन भेद हैं; वहाँ चौथः ह्रस्वतर' भी सही । परन्तु 'अ' का अभाब कैसे कहा जा सकता है ? हिन्दी की प्रकृति देखनी होगी। अंग्रेजी के जज’ ‘नाइफ' आदि शब्दों में कितने ही ऐसे वर्ण सन्निविष्ट हैं, जिन का कतई उच्चारण नहीं होता; पर यह तो कोई नहीं कहता कि वहाँ बर्ण हैं ही नहीं ! जिस का कतई उच्चारण न हो, उसका अस्तित्व स्वीकार और जिसका उच्चार है, भले ही हलका, उस का अस्तित्व अस्वीकार । अंग्रेजी जबर्दस्त भाषा है न ! | हिन्दी में विसर्गान्त भी ! भाषा-विज्ञानियों ने हिन्दी में विसन्त शब्द भी माने हैं ! संख्यावाचक *छः' शब्द ( विसर्गान्त ) स्वीकार किया गया है और फिर लिखा गया है कि हिन्दी में संस्कृत ‘ध’ का छ: कैसे हो गया, समझ नहीं पड़ता ! इसे “एक समस्या बतलाया गया है। कहा गया है-'सोलह आदि को देखते ‘छः विसर्गान्त एक समस्या है! हम सन् १६४३ में ही प्रकट कर चुके हैं कि हिन्दी के गठन में विसर्गे का कोई स्थान नहीं और इसी लिए प्रथमा---एकवचन 'राम' कविः' आदि के विसर्ग इट्टा कर 'राम' 'कवि' जैसे निर्विसर्ग शब्दों कों हिन्दी ने अपना “प्रातिपदिक' माना है; जब कि राजन्’ का 'राजा' रूप ग्रहण किया है।