पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६४६

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यहाँ पुल्लिङ्ग रूप ‘मारनौ' ही नहीं अपितु इस का नपुंसक लिङ्ग रूप ‘मार भी मिलती हैं। साहित्यिक व्रजभाषा की अपेक्षा ग्रामीण ब्रजभाषा में नपुंसक का ही रूपे अधिक प्रचलित है ।” यानी अनुनासिक रूप नपुंसक लिङ्ग ! तब तो 'सर' भी नपुंसक लिंङ्ग ! और 'पानी' शब्द किसी नपुंसक लिङ्ग का बहुवचन हो गा ! ‘वनानि की तरह ‘पानी' ! बढ़िया अनुसन्धान है ! इसी तरह ‘सोनों कम नपुंसक लिङ्ग रूप सोनों बतलाया गया है | तुज ‘बीस पचासौं श्रादि भी नपुंसक लिङ्ग ही समझे जाएँ गे ! 'अपनो धुलिग और अपन' नपुंसक लिङ्ग बतलाया गया है ! पूछा जाए कि कैसे समझा कि ‘झरन' सोनों अपनँ' नपुंसक लिङ्ग हैं, तो डा० हार्नली, डा० टर्नर और डा० ग्रियर्सन का प्रमाण दें गे कि उन्होंने ऐसा लिखा है। कहें ये, ‘क्या वे कम विद्वान् थे ---कम विद्वान् हैं ?' इस का क्या उत्तर दिया जाए ? प्रत्यय-विश्लेषण अब जरा प्रत्ययों को निकास-विकास भी देखिए कैसा काम भाषाविज्ञानियों ने किया है ! ओह !! इद है !!! हम ने अपने इस ग्रन्थ में जो कुछ लिखा है, बिलकुल उलट-पलटा हुँचने लगता है, अब माग्न विज्ञान के व्याकरणीय अंश सामने आते हैं ! परन्तु 'संस्कार' तो संस्कार | होता है ! बदलता नहीं है । तुलना करने के लिए कुछ सामग्री लीजिए। १-'अ' प्रत्यय ।। चूँकि भाषाविज्ञानी लोग चकोर' वर भात’ ‘बात' आदि शब्दों को अकारान्त नहीं, व्यंजनान्त मानते हैं; चकोर, घर भत्, वात् जैसे रूप स्वीकार करते हैं; पर लिखने में अकरान्तु ही घर में इकोर हैं' ब चलते हैं । तब सिद्धान्त-रक्षा कैसे हो ? इस के लिए 'अ' प्रत्यय कायम किया गया है । कहते हैं, व्यञ्जनान्ते “चकोर ‘घर' आदि में नगर कर यह प्रत्यय इन शब्द को ‘चकोर’ ‘घर' जैसा अकारान्त बना देती हैं। जैसे संस्कृत में राम शब्द के आगे विभक्ति लश कर रामः' बन जाता है। यानी वर आदि हिन्दी के प्रातिपदिक हैं और 'घर' श्रादि हैं 'पद’ ! यह है भाषा-बिहान ! परन्तु पूछा जाए कि 'कोर' तो पहले से ही अकारान्त है; तब यह व्यंजनान्त कैसे हो गया ? हो गया था, तो फिर वैसा ही चलता | फिर उसे अकारान्त करने के लिए 'अ' प्रत्यय की कल्पना क्यों ? इस का कुछ छात्र