पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६५०

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( ६०५ ) हम लोग इसे समास' का विषय समझते हैं---खंड खंड जो घर हो या हो, वह 'बँडहर' । “ध' से अल्पप्राण (ग ) उड़ गया। पिता का पुर-पीहर' । परन्तु समास और सन्धि इतने अलक्षित हैं कि यह निरुक्त का वैषय बन जाता है। गहरे भाषाविज्ञानी' दूसरे ढंग से सोचते हैं ! दे ‘मधुर' पसन्द करते हैं। राष्ट्रभाषा में भी नपुंसक लिङ्ग । ब्रजभाषा में नपुंसक-लिङ्ग शब्द करन’ ‘सोन' आदि भाषाविज्ञान बतलाते ही हैं; राष्ट्रभाषा ( हिन्दी ) में भी उन लोगों ने नपुंसक-लिङ्ग खोज निकाला है—“यद्यपि हिन्दी में नपुंसक लिङ्ग नहीं है; परन्तु प्रकृत्यनुसारी पुल्लिङ्ग एवं नपुंसक-लिङ्ग की थोड़ा सा भेद कर्मकार के परसर्ग को' के प्रयोग में अवश्य दिखाई देता है।” भाषाविज्ञानी लोगों ने विभक्ति' का नया नाम ‘परसर्ग और कहीं *अनुसर्ग” रखा है ! अच्छा, नपुंसक लिङ्ग देखिए-**साघरिणतया कर्मकारक के पर को' का अप्राणिवाचक शब्दों के साथ प्रयोग नहीं किया ध्याता । हिन्दी के वागू-व्यवहार के अनुसार ‘धोबी को बुला' 'माय को खोल दो तो कहते हैं; परन्तु कपड़ों को लाओं ‘चास को काटों न कह कर कपड़े ला” घास काटो' ही कहा जाता है । सो, इससे हिन्दी में प्रकृत्यनुसारी पुलिंङ्ग-नपुंसकलिङ को मैद दिखाई देता है; भले ही थोड़ा सही ! खोज है ! समझने वाले चहिए । कदाचित् अप्राणिवाचक शब्द को नपुंसकलिङ्ग बतलाया गया है। युह ‘प्रकृत्यनुसारी है । संस्कृत में तो जड़ पदार्थ भी पुलिङ्ग और खलिङ होते हैं। और, यदि को' के न लगने से ही अप्राणिवाचक शब्दों में नपुंसको भी इस लिङ दिखाई देता है, तो फिर कुन्या ने वर खोच लिया में ठहरता है ! पर इस से ‘भाषाविज्ञानी’ को क्या मतलब ! अव्ययों का विकास अव्यय का विकास भाषाविज्ञान वालों ने कैसा समझ-समझाय, ह भी देख लीजिए ! सब तरह के नमूने चाहिए।