पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६६

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शाम को दुलराती हुई । या फिर अवज्ञा में---‘कल्लू' बुद्ध आदि । | यह इतना प्रासंगिक । अवधी तथा ब्रजभाषा हिन्दी की बराबर की बहनें हैं---खड़ी बोली' का क्षेत्र इनके क्षेत्रों से मिला-सटा, हुअा है ! ये हिन्दी की बोलियाँ कहलाती हैं और हिन्दी की व्यापकता में इन सब का सन्निवेश हैं । अबधी तथा ब्रजभाषा का ही नहीं, राजस्थानी का साहित्य भी ‘हिन्दी-साहित्य समझा जाता है। पंजाबी-सुहित्य यदि नागरी लिपि में चले, तो वह भी हिन्दी-साहिल झा एक अंश समझा जाएगा। बहुत थोड़ा- थोड़ा अन्तर है । यही क्यों, बँगला, उड़िया, गुजराती तथा मराठी आदि प्रादेशिक भाषाएँ भी यदि नागरी लिपि में लिखी जाएँ, तो कल वे भी हिन्दी की या हिन्द की बोलियाँ समझी जाने लगेगी, ना लिपि एकसूत्रता लाती है । लि’ि एक होने से सबको सुलभ हो जाएँगी । नागरी के कारण उन प्रादेशिक भाषा को समूचे हिन्द के लोग सरलता से समझ सकेंगे, जैसे कि इम ( उत्तर प्रदेश वाले ) राजस्थानी आदि समझते हैं । मराठी तो नागरी लिधि में चलती ही हैं। उन्हें भी हम इसी तरह पढ़े-सुनेंगे; जैसे कि अवधी का एमचरित मानस' तथा ब्रजभाषा का सूरसागर' पढ़ते सुनते हैं, या जिस तरह राजस्थानी को पृथ्वीराज-रासो' पढ़ते हैं। कारण, मूल धातु सई में प्रायः एक ही हैं--अ, जा, स्वा, पी अादि । प्रत्यय-भेद भर है । खड़ी बोली में एक प्रत्यय है, ब्रजभाषा में दूसरः, अवधी में तीसरा । इसी तरह पंजाबी, बँगला, गुजराती, मराठी आदि में प्रत्यय-भेद भर है कहीं-कहीं ग्रयों में एकरूपता भी है, भिन्नता भी है । भरठी में- | दाँग आला--दाँ झाले | हिन्दी में---दाँगा अाया--दाँगे आये कृदन्त प्रत्यय ल’-‘य रूप से भिन्न है, पर प्रत्यय झा' वा बहुवचन में ‘ए’ होने की प्रवृत्ति भी वही है। ब्रजभाषा का पुंप्रत्यये गुजराती में भी है। जब कभी अन्तरभारत-व्याकरण’ बनाने-दाने का महाप्रयत्न किया जाएगा, तब इन सब बातों का ऊहापोह होगा । मैं तो मराठी, गुज- राती और बँगला आदि से अनभिज्ञ हूँ। यदि यह कसजौरी न होती, तो इस सम्बन्ध में कुछ सोचने-करने का प्रयत्न मैं भी करता है परन्तु अपने गुज- राती तथा महाराष्ट्र मित्रों के मुख से जब सुनता हूँ, तो मुझे बहुत सस्ता अपनी भाषा में दिखाई देती है। भिन्न-रूपता तो है ही, अन्यथा भाषा-