पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६८

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विशेष स्थल में, विशेष काम के लिए } सो भी, उसमें कुछ परिवर्तन कर के, ‘ह' का लोप करके । समष्टि-बोध के लिए ब्रजभाषा में बारहू’ ‘चार हु’ अादि प्रयोग होते हैं। राष्ट्रभाषा ने ' का लोप करके और ‘झ' तथा ऊ' में रूप सन्धि करके–

चारो, तीनो, छहो, अटो,

जैसे रूप बना लिए हैं। ऐसी जगह चारों' जैले अनुनासिक रूप लिखना गलती है, क्योंकि मूल शब्द ( हू } निरनुनासिक है। यहाँ ‘ो' प्रत्यय नहीं है । संख्यावाचक शब्दों के साथ ‘हू' को सन्धि है, ‘’ रूप में। बहुत-बोधक प्रत्यय इससे पृथक् चीज है, जो कि सैंकड़ों लाख ‘करोड़ों ने श्रादि में देखते हैं । का अर्थ है-‘कितने ही' । कितने ही सैकड़ा, कितने ही लाख, कितने ही करोड़, या ‘कुछ अधिक' । ‘बीस-बीस से अधिक हो । यहाँ मुसष्टि-सूचक जैसी कोई बात नहीं है । दोनों में बड़ा अन्तर है। वह ‘डू' तथा यह बहुत्व.सूचक ' प्रत्यय प्रकृत की धारा से यहाँ आए हैं । यही असंज्ञ तथा विभक्ति के बीच में कर बहुत्व-सूचक विझर' बन जाता है-लड़कों को लड़कियों को ‘राजा को अादि । यह सब आगे मूल ग्रन्थ में स्पष्ट हो । ‘दो’ से रो संस्कृत मैं ( ‘तीन” से ) बहुत्व होता है । औ’ का बड़ा महत्व है। इसमें चार वेद समाए हैं। इसमें तीन अक्षर हैं । 'म्' की जगह ‘’ को अनुनासिक कर के यही तो ‘ों नहीं है ? केवल 'हू' के ‘हु' का ही लोप नहीं, “ही के 'ह' का भी लोप होता है और प्रत्यय के 'हि' के ‘ह का भी ! ब्रजभाषा में अवधारण के लिये 'ही' आता है, जो कभी-कभी 'ई' के रूप में भूः रह जाता है---‘प्रोई रहै। यो । परन्तु सर्वदास में 'ही' ही प्रायः देखा जुद हैं-‘याही ते सोहि हानि परति है। इसी से जान पड़ता है। 'भिल्स आजु दाइी दौर- उसी ऊराह् ।। | हिन्दी में सर्वनाम के साथ ही लोप-सन्धि से आता है, अन्यत्र अपने उसी तात्विक रूप में--‘उसी कमरे में ! यहाँ 'ही' के ‘हु’ का और सर्वनाम के अन्त्य 'ऋ' का लोप है । उस ही>उसी । इसी तरह ‘किसी रूप हैं। यहाँ 'किस' के झागे कोई अवधार्थ प्रत्यय नहीं है, जैसा कि लोगों को भ्रम होता है । कोऽपि> कोई> 'किस' है । को’ को ‘किस' और आगे