पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६९

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‘इसी-उसी” आदि की तरह ‘ऐसी-वैसी श्रादि में भी ‘ही न समझ लेना चाहिए। यहाँ अवधारण नहीं है। अवधारण के लिये पृथक् 'ही' लानी पड़ती है----‘ऐसी ही बात रास ने भी कही थी’ ! ये 'ऐसी, जैसी, फैस’ आदि रूप ‘ऐसा, जैसा, कैसा' आदि के स्त्रीत्व में हैं। | ‘ऐसा' आदि रूपों में समास-विधि है। यहाँ कोई तद्धित प्रत्यय नहीं हैं। यह सब आगे विस्तार से बताया जाएगा । किसी-किसी ने खा' को अव्यय माना है और सादृश्य के लिए उसी से ‘ऐसा' आदि रूप मान लिए हैं ! यह भी गलती है । हिन्दी ने शब्द-विकास में संक्षेप-वृत्ति पसन्द की है, यह अभी अनुपए बताया जाएगा । संस्कृत ‘स्स’ को हिन्दी ने केवल ‘स' के रूप में तब बनाया और इसमें फिर अपनी पुंविभक्ति लगी कर 'सा' कर लिया। तभी तो बहुवचन में से होता है और स्त्रीलिंग में ‘सी’। यदि अव्यय होता, तो एकरूप रखता । सस' भी हिन्दी में चलता है, पर इस तद्भव ‘सा' का विशिष्ट स्थान-प्रयोग है । हिन्दी इस ‘अपने शब्द का प्रयोग ठीक वहीं करती है, जहाँ संस्कृत अपने क्षेत्र में इव' का- सादृश्य, उपेक्षा, सम्भाना तथा स्वार्थ आदि में । 'सम' तथा 'समान’ आदि का प्रयोग केवल सादृश्य में होता है। | ‘इस-उस' आदि की तरह 'तुम' के भी अन्त्य ‘अ’ का लोप हो जाता है, यदि सामने 'ही' हो-'तुम्ही । हम्ही देखने में नहीं आता। हम जरूर चलता है। दो शेर एक जगह कम रहते हैं । 'हम' में जो ‘सु’ है, वह भी है' का ही संगी-साथी है । ‘स' की जगह ‘ह'- प्रायः ले लेता है। दस' के 'स' को 'ह' कर के ही ‘दइल’ बना है । स, ह, ये दोनों महा- प्राण हैं। दो स’ तो इकठ्ठ आ भी जाते हैं----पिस्सू, मस्सा आदि; परन्तु दो ह’ एक जगह नहीं बैठते ! असली बब्बर हैं“महाप्राण’ ! यही नहीं, छ त् श्रादि अल्पप्राणों के साथ बैठकर जब यह ह” उन्हें भी ‘महाप्राण- ‘ख’ थ' आदि बना देता है, तब इनकी भी स्थिति वैसी ही हो जाती है। दो थ' या ‘ख’ अदि एक साथ नहीं आ सकते---सट कर नहीं बैठ सकते ।। इ, कोई अल्पप्रणि पीछे आ बैठे, तो यह दूसरी बात है-“कथा’ सखी' श्रादि । इसी तरह ‘६' 'ढ' घ' आदि को भी समझिए । अल्पप्राणु को साथ ले सकते हैं--‘अग्धी, बुड्ढा, मद्धे अादि ।। अब अकृत लीजिए । 'उस' में जो 'स' है, “ह' की ही बराबरी की हैं। 'ह' में जोर अधिक है, परन्तु 'स' भी समकक्ष है। यहाँ ‘हु’ हट