पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/७०

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गथा । जब जगत् का शासन करने राम अ ,, तब परशुराम बन्न चले गए ! तुम्ही' में ही' की 'ई' अनुनासिक हो जाती है । बहुद के गौरव में मधुरता चाहिए। सर्वनाम के अन्त्य ‘अ’ का लोप । इम' में 'ही' के हु’ का लोप, क्योंकि हम' में एक महाप्राण ‘हे’ पहले से ही बैंक है। *तुम्हीं ने’ ‘हम ने’ में प्रकृति-प्रत्यय के बीच ही अव्यय हैं, जैसे उसी में इसी अादि में । यह हिंदी की प्रकृति है। संस्कृत में ऐसा नहीं होता है यह विभक्ति को विभक्त कुरके लिखने का फल है । ‘सब ही का? तुलसी-प्रयोग भी है। हिन्दी ने उस का भी स्वतंत्र प्रयोग किया है---इस पुस्तक की चार प्रतियाँ हमें देना’ | ‘प्रति, एक उपसर्ग हैं। उसका स्वतंत्र प्रयोग संज्ञा की तरह चलता है । ‘ाति के ‘या’ को ‘जा' धातु बना कर आता है। आदि रूप बनते-चलते हैं, परन्तु आयाति' के ‘ज्जा’ को हिन्दी ने नहीं 'लिया । इसके ‘ा' उपसर्ग को ही लेकर ‘अ’ धातु बना ली ‘शाता हैं ।

  • जाता है कभी-कभी यह पृथक चीज है। हिन्दी में ] उपसर्गों का

स्वतंत्र प्रयोग करने की प्रवृत्ति मूल भाषा से ही गई है। पुरानी संस्कृत में भी क्वचित् ऐसा होत हो । यास्क के निरुक्त में इसकी चर्चा है । उपसर्गों के प्रकरण में यात्क में लिखा है--उञ्चाबचाः पदार्थ भवन्तीति शाकटायन-शकिटायन ने लिखा है कि उपसर्गों के स्वतंत्र प्रयोग भी विविध अर्थों में होते हैं । टीझया में श्री दुर्गाचार्य ने स्पष्ट किया है-‘वियुक्तानामपि नामख्यिाताम्यामिति गाग्र्यः' यानी नास उपप्रधान अादि तथा अख्याद {क्रियाएँ) अवगच्छति' आदि से पृथकू स्वतंत्र रूप से भी उपसर्गों के विविध अर्थों में प्रयोर होते हैं, ऐस? राग्यं का मत है । र्य के समय तक बैसी बाल संस्कृत में रही होगी, जो यास्क के आते-आते ही पड़ कर समाप्त हो गई । परन्तु जन-शा में वह प्रवृत्ति बनी रही, जो आज भी हिन्दी में स्पष्ट हैं। कहने का मतलब यह कि प्रकृति तथा प्रत्यय के बीच में ही आदि का श्रीन परम्परा-प्राप्त है । पहले उपसर्ग भी कहीं के कहीं प्रयुक्त होते थे। वेद- मंत्रो में देखे जा सकते हैं । कालिदास के भी ऐसे प्रयोग हैं । संस्कृत में विभक्तियाँ संदिलष्ट रूप में प्रयुक्त होती हैं, इसलिए प्रकृति-प्रत्यय के बीच में शब्दान्तर आने की बात ही नहीं । हिन्दी में भी संदिलष्ट विभक्तियो का जहाँ प्रयोग है, बीच में कोई शब्द नहीं आ सकता • “उसे ही भेज दो। यहाँ