पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/७४

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समझी जाती थीं। हिन्दी-व्याकरणों में इन दोनों को ही कर्तृवाच्य' लिखा रहता था ! तब लोग चक्कर में पड़ते थे कि एक जगह कर्ता ( राम’ ) के साथ पुल्लिंग क्रिया खाता है और दूसरी जगह स्त्रीलिंग ‘खाई; यह क्या बात ? साधारण जनो की बात नहीं, विद्वद्वर डा० अमरनाथ झा जैसे हिन्दी के विद्वान् भी इस उलझन में थे ! डा० सूर्यकान्त वम जैसे विद्वान् तथा डा० धीरेन्द्र बम जैसे भाषाविज्ञानी भी इसी फेर में थे ! मैं स्वयं बड़े चक्कर में था ! परन्तु सन् १९१६ से सन् १६४२-४३ तक जो विचार इस विषय में मैं ने किया, उससे वस्तुस्थिति बहुत स्पष्ट हो गई। सन् १९४७ से १६.५० तक तो और भी अधिक स्पष्ट विचार सामने श्राए' और 'ने' का प्रकृत रूप सबने समझा । तिल की ओट पहाड़' था । यह 'ने' हिन्दी में प्राङ्कत के किस रूप से श्राई है, पता नहीं चलतः ! परन्तु भाई तो प्राकृत की ही किसी धारा से, है, इसमें सन्देह नहीं । साधारण अपढ़ जनता संस्कृत से कैसे प्रभावित हो सकती हैं। प्राकृत का वह ( 'ने' वाला ) रू निश्चय ही खड़ी बोली के क्षेत्र में, कुरुजनपद में ( उ० प्र० के मेरठ डिवीजन में } जन-गृहीत रहा होगा। अन्यथा वहाँ 'ने' कैसे कूद पड़ती.? और कहीं क्यों न कूद पडी ? संस्कृत के गढ़ काश-क्षेत्र में वह क्यों न अवतरित हो गई ? खड़ी बोली के क्षेत्र में कदाचित् संस्कृत भः कृदन्त-प्रधान ही कभी चलती हो । महाकवि राजशेखर ने लिखा है---‘कृत्प्रयोरारुवय उदीच्याः । वानी, उत्तर भारत के ( उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के लोग कृदन्त क्रियाएँ बहुत पसन्द करते हैं। राजशेखर ने संस्कृत-प्रयोग के संबन्ध में यह निर्देश किया है । इसका मतलब यह भी हो सकता है कि इस क्षेत्र के संस्कृत-विद्वानों पर अपनी जनभाषा का प्रभाव पड़ा और वे अपनी मातृभाषा की पद्धति पर ( संस्कृत के) कृदन्द प्रयोग अधिक करने लगे । यह भी संभव है कि संस्कृत नहीं, उस समय की खडी चोली के बारे में ही उनकी कलम से वैसा निकला हो; यद्यपि संस्कृत-ग्रन्थ में वे वैसा कह रहे हैं । उस समय खड़ी बोली' प्रकट होकर जन-व्यवहार में मदद दे रही थी। सन्त गोरख की वाणी में खड़ी बोली' का आभास मिलता है और राजेश्वर का भी समय प्रायः यही पड़ता है। प्रचलित प्राकृत के पुत्तेहिं जैसे प्रयोगों के ‘हिं’ से ने निका-- लना समझ में नहीं आता है। कुछ भी हो, यह 'ने' विभक्ति तथा कृदन्त क्रिया का बाहुल्य राष्ट्रभाष्य की अपनी विशेषता है ।