पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३०)

| हिन्दी में एक और भी विशेषता है, जो इसृङ्गी विभिन्न 'बोलियों में भी देखी जाती है। यहाँ अनुनासिक स्व को बाहुल्य है--दाँत, श्राँत, गॉव, पूँछ, अँगूठी, आँख, ईंट, छींट, अँगुली, नीदें आदि अनन्त शब्दों में अनुनासिक स्वर देखे जाते हैं। संज्ञाओं तथा क्रियाओं के बहुवचन बनाने में भी स्वर को अनुनासिक कर देने की व्यापक प्रवृत्ति है---बहनें, नदियों, सैकडौं, करें, पढ़ें, जाएँ आदि । “स्कृत में ( बहुवचन बनाने में ) वर्गीय पंचम अक्षरो का प्रयोग देखा जाता है--‘पठति-पठन्ति' । हिन्दी ने एक वर्ण बढ़ाना व्यर्थ समझ कर स्वर को ही अनुनासिक कर दिया है । अनु- स्वार' की सत्ता तो स्वरो से पृथक् है; पर अनुनासिक कोई पृथक् चीज नहीं, यह बर्ण-प्रकरण में स्पष्ट किया जाएगा। वर्गीय पंचमाक्षर का प्रतीक अनु- नासिक के रूप में ग्रहण करना निश्चय ही प्राकृत-परम्परा का परिणाम है ।। | ऐसा जान पड़ता है कि 'मूल-भाषा में अनुनासिक चलन अधिक रहा होगा । संस्कृत में भिन्न पद्धति है अनुनासिक की जगह वर्गीय पञ्चम वर्गों का प्रयोग होने लगा होगा। तो भी, वैदिक साहित्य में अनुनासिक स्वरों का पर्याप्त प्रयोग देखा जाता है । अागे चलते-चलते अनुनासिक ( संस्कृत- साहित्य में ) छीजता गया और वर्गीय पञ्चमाक्षर बढ़ते गए। किन्तु पाणिनीय व्याकरण में अनुनासिक स्वरों का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है । प्राचीन संस्कृत साहित्य को ध्यान में रखने का ही यह परिणाम है । वैदिक-भाषा पर भी पाणिनि ने पूरा विचार किया है। पाणिनि-व्याकरण में स्वरों के दो मुख्य भेद किए गए हैं---अनुनासिक और अननुनासिक । यह पूर्व संस्कार से। पिछली संस्कृत को देखते तो यही लिखना पर्याप्त था कि कभी-कभी स्वर अनुनासिक भी देखा जाता है। कारण, पिछली या आधुनिक संस्कृत में अनुनासिक स्वरों का प्रयोग नहीं के बराबर है। पहले कहा जा चुका है कि ‘द्वितीय प्राकृत' पर संस्कृत के पण्डितों का बहुत प्रभाव पड़ा है। या यों कहा कि प्राकृत में धर्म-ग्रन्थ लिखनेवाले संस्कृत से प्रतिद्वन्द्विता करते हुए भी उसकी नकल करने में विवश थे ! संस्कृत का प्रभाव ही ऐसा था । परन्तु फिर भी, प्राकृत में अनुनासिका स्वर दिखाई देते हैं । तृर्तीय प्राकृत { प्राकृत की तृतीय अवस्था ) का श्राद्य रूप देखिए, { जिसे लोगों ने 'अपभ्रंश' नाम दिया है, तो जान पड़ेगा कि अनुनासिक की और पुनः प्रवृत्ति है । नकली प्राकृत का प्रभाव कम होता गया है, जन- भाषा की शोर झुकाव होता गया है। और तीसरी प्राकृत की प्रौढ़ अवस्था