पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/७६

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में ( आधुनिक भारतीय भाषाओं में } पुनः अनुनासिक का दौर-दौरा देखने को मिलता है। ‘हे’ को 'है' या 'हैन्” न कोई बोलता है, न लिखता है । वैसा करना असम्भव है । अनुस्वार के स्थान पर बर्गीय पञ्चाक्षर' और इन । पञ्चाक्षरों ) के स्थान पर अनुस्वार दिया जा सकती हैं, परन्तु अनुना- सिकत्व इधर-उधर नहीं हो सकतः ।। कुछ लोग अनुनासिक स्वर’ को ‘सानुनासिक बर' लिख देते हैं, जो गलत है । यह सब अागे वर्ण-प्रकरण में बतलाया जाएगा । 'सानुस्वार स्वर कहा ठीक है, परन्तु ‘सानुनासिफ स्वर” कहना गलत, इतना प्रसंगतः यहाँ कहा जा रहा है ! अनुस्वार की स्वर से पृथक सत्ता हैं, परन्तु अनुनासिक को स्वर से या स्वर को अनुनासिक से पृथकू नहीं कर सकते । अनुभव भर किया जाता है । अनुनासिकत्व स्वरूपात चीज है। ‘मधुर फल' की तरह अनुनासिक दर” । 'समधुर फल नहीं है परनु पृथकू चीज-“साग्रज भरत सानुस्वार इर'। इसीलिए 'सानुनासिक स्वर' कहना गलत है । विस्तार से आगे मूल अन्थ में लिखेंगे । सो, हिन्दी की यह भी संस्कृत से एक विशेषता है। हिन्दी की विविध ‘बोलियो’ में तथा प्रसिद्ध प्रादेशिक भाराओं में भी इस ( अनुनासिकत्व ) की सत्ता हैं ।

        ‘खड़ी बोली का परिष्कार

खड़ी बोली हिन्दी ( या राष्ट्रभाषा } यों ही, ज्यों की त्यों, नहीं बन गई है। खान से निकलने के बाद ही तुरन्त राज-गृहीत नहीं हो जाता, उसका परिकार होता है, शायोल्लेख होता है, खराश-तराश होता है। तब बह सुडौल और मोहक बन जाता है । हीरा बनाया नहीं जाता, उसका परिकार जरूर होता है। इसी तरह भाषा का परिकार होता है। क्षेत्रीय खड़ी बोली में और राष्ट्रभाषा हिन्दी में यहीं (परिष्कार-मूलक) अन्तर है ।। कुरुजनपद में बोलते हैं-धोत्तरै ठाला' और 'तू उठ जा’ | एक जगह '5' है और अन्यत्र उसके पहले 'उ' हैं । इसी तरह तू उतर जा' और

  • धोली तार ले' आदि के प्रयोग हैं । हिन्दी में उठा ला’ ‘उतार ले प्रयोग

होते हैं-ठा ला’ तर 'तार ल’ नहीं। 'बैठा-ठाला' में ‘ठाला मिलेगा और