‘तार ले भवसागर से रथ ' में ‘तार ले मिलेगा। तारना” तथा “उतारना
दो पृथक्-पृथक् क्रियाएँ हैं।
इसी तरह खड़ी बोली के क्षेत्र में ‘घोसी’ ‘रोट्ठी' जैसे शब्दों में व-
द्वित्व करने–बोलने की चाल है। हिन्दी ने इस कर्ण -कतार को हटा कर
‘धोती’ ‘रोटी' जैसे सुडौल शब्द बना लिए हैं ।
| ‘खड़ी बोली' बोलने वाले अनुनासिक के स्थान पर वर्गीय पञ्चमाक्षर या
अनुस्वार कहीं-कहीं बोलते हैं-‘मेरे पैर में कान्टा लग गया' । हिन्दी में
एकमात्र अनुनासिक रहता है-“काँटा' ।।
| क्रिया-पदों के उच्चारण में भी अन्तर है । खड़ी बोली के क्षेत्र ( मेरठ )
में ‘है' का उच्चारण कुछ विचित्र होता है । ‘ए’ का श्रवण नहीं होता। ‘अ’
का एक झटके के साथ उच्चारण होता है। वैसे उच्चारण को व्यक्त करने के
लिए नागरी लिपि में कोई संकेत नहीं है। कुछ ऐसा ही उच्चारण है' का
बनारस में सुन पडता है—न ‘’ न है । बीच की स्थिति । यह
आश्चर्य की बात है कि बीच में एक लंबे क्षेत्र में ) पूरी तरह 'है' सुनाई
देता है और ब्रज में भी है' है; यद्यपि 'ह' घिस गया है। हाँ, साहित्यिक
ब्रजभाषा में 'है'-हैं' का चलन है--'ऐं' का नहीं।
अनेक-वर वाली क्रिया के भूतकाल में कर्मवाच्य या भाववाच्य प्रयोग
मेरठ डिवीजन में प्रायः “यू” सहित करते हैं-देख्या, पक्ष्या अदि। हिन्दी में
- देखा-पढ़ा' जैसे रूप चलते हैं, यू का लोप कर के । हाँ, ब्रजभाषा अादि में
‘देख्यो’ ‘सुन्यो' पढ्यो' बोलते-लिखते हैं। ‘यू' का लोप भाषा में महत्व रखता है। इसकी विवेचन मूल ग्रन्थ में खायी-खाई तथा ‘खाये-खाए' श्रादि का विश्लेषण करते समय आप देखेंगे । खड़ी बोली के क्षेत्र में “ल” को कभी- कभी ‘छु” भी बोलते हैं---‘निकड गया साड़ा'---निकल गया साला ।। ऐसे ही छोटे-मोटे कुछ भेद क्षेत्रीय खड़ी बोली में और राष्ट्रभाषा हिन्दी में देखे जाते हैं । साहित्यिक भाषा में विचार-विमर्श तथा परिष्कार चलता ही है। तभी तो कोई एकदेशीय चीज सार्वभौमता प्राप्त करती है । परन्तु उस ‘बोर्ली' में और राष्ट्रभाषा में बहुत-सी चीजें समान हैं। एक ऐसी चीज मेरठी बोली में है, जिसके कारण ही निश्चयात्मक रूप से इसे राष्ट्रभाषा की उपादान-सामी कद्द सकते हैं और वह है धातुओं का रूप | हिन्दी की अन्य बोलियों में सोव, रोव, धोव, अव आदि धातु-रूप हैं ----सोवत है?