पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३३)

अादि क्रियाएँ । 'व' को सम्प्रसारण ( ‘उ' } होकर साउत है श्रादि भी । परन्तु राष्ट्रभाषा में सो रो’ आ' श्रादि धातुएँ हैं; सोता है, रोता है, आता है श्रादि क्रियाएँ । मेरठ में “सोता है? { या ‘सोता है’ ) आदि बोलते हैं--- “सोबता है जैसा नहीं । 'सोवै है' ब्रज आदि के प्रभाव से ।

हिन्दी की विकास-पद्धति

हिन्दी ने अपने शब्दों की बिकास-पद्धति में संक्षेप, औचित्य तथा स्पष्टता का पूरा ध्ान रखा है। कभी-कभी संस्कृत के तडून शब्दों में भी अपनी पुंविभक्ति लगा कर विशिष्ट शब्द बना लिया गया है । रस' शब्द हिन्दी में उर अर्थ में चलता हैं, जिस अर्थ में संस्कृत में ! परन्तु रसा' कहते हैं सा-भाजी के मसालेदार पके रस को---रसेदार आलू बनाओ ।” ‘प्रहर' से हिन्दी ने “पहर बना लिया, उसी अर्थ में । तीन घंटे का एहर होता हैं। सिपाहियों से तीन घंटे काम लिया जाता था, चौकसी करने का । एक पहरे की ड्यूटी । सिपाही के उस पहर’ भर के काम को पहरा', कहा जाने लरा और उस काम को करनेवाला हो गया. “पहरेदार' । संस्कृत में पहरेदार को प्रहरी' कहते हैं। हिन्दी ने ‘प्रहरी” से “यही नहीं बनाया, क्योंकि यहाँ दुपहरी' शव्द मध्याह्न के लिए चलता है-दो पहर बीत जाने पर दिन की बेला । पहरे- दार को हरी' कहते, तो दुपहरी' के अर्थ में झमेला पड़ता । दो पहरे- दारों का समाहार भी समझा जा सकता था । “दुपहरी में स्पष्टता के लिए वर्ण-व्यत्यय तथा सन्धि आदि नहीं है । ‘दो' का ‘दु' तो वृत्ति में ही हो जाता है, सब समझते हैं। ‘खड़ी बोली में ( मेरठ जनपद में ) दुपहर को ‘धुरी कहते हैं, जिसे राष्ट्रभाषा में ‘दुपहरी' कहा जाता हैं । ब्रज की बोली में दुपहर को सौपर कहते हैं, परन्तु साहित्यिक ब्रजभाषा ॐ धौपर” गृहीत नहीं हैं । स्वर-मात्रा घटा-बड़ा कर शब्दान्तर बनाने की दाल बहुत पुरानी है। संस्कृत में ‘ार्य का अर्थ श्रेष्ठ तथा एक पूरी जाति है । परन्तु उसकी मात्रा में लाधव ला कर ‘अर्थ’ बना लिया गया है— वैश्यः'--एक वर्ग-विशेष ।' सम्पूर्ण अति में मात्रा-गौरव जो है, वह एक साधारण वर्ग में कैसे रहेगा ? मात्रा-घर से संस्कृत ने अन्यत्र भी अर्थ-गत लघुता या हीनता प्रकट की।