पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८

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भाजन भाषा को, जिस में पढ़ने और सुनने लायक कुछ भी नहीं है ! अब भी उन लोगों के नामलेवा खत्म नहीं हुए हैं ! हाँ, अब उनकी बातें एक मनोरंजक उपहास की चीज जरूर हैं और वे अधिकतर उर्दू वालों के मुँह से सुनने में आती हैं।

हिन्दी की सार्वभौम सत्ता

| किशोरीदास को मथुरा-वृन्दावन के बैरायियों के सम्पर्क से ही हिन्दी ( ब्रजभाषा ) कविता के साथ परिचय प्राप्त करने का अवसर मिल सकता था। पर उसके प्रति आदर तभी हो सकता था, जबकि वे संस्कृत के पंडितों को वैसा करते देखते । यह काम उन के लिए, मधुसूदन गोस्वामी, किशोरीलाल गोस्वामी, राधाचरण स्वामी जैसे हिन्दी के स्वनामधन्य पितामह ने किया | वाजपेयी जी लिखते हैं--*श्री किशोरीलाल गोस्वामी से इस लिए झगड़ बैठा था कि मेरे एक वाक्य में ‘दश प्रकार की भक्ति के “श” को काट कर दस गलत क्यों कर दिया गया ! गोस्वामी जी उस समय ( १९१६ ई० में ) मुस्करा कर केवल इतना बोले थे कि हिन्दी में ‘दश की जगह ‘स' ही चलता है, यह सब आगे मालूम हो जाएगा।" यह देखने में छोटी-सी बात किशोरी दास जी के लिए बड़ी जबर्दस्त शिक्षा थी । वे समझने लगे थे कि हिन्दी एकदम संस्कृत की चेरी नहीं है; इसीलिए उस पर हर समय संस्कृत के व्याकरण को लादने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। संस्कृतज्ञ हिन्दी-लेखक -आज भी इस धींगामुश्ती से बरी था बाज नहीं आते ! वस्तुतः इस दृष्टिकोण को छोड़े बिना वे अनेक हिन्दी-शब्दों का ठीक से निर्वचन नहीं कर पाते हैं । जब उनका सामना हिन्दी शब्दों से पड़ता है, तो वे यह नहीं समझ पाते कि हम संस्कृत-सार्वभौम के किसी छोटे-मोटे माण्डलिक के सामने नहीं खड़े हैं। हिन्दी अपने क्षेत्र में स्वयं सार्वभौम सत्ता रखती है। यहाँ उसके अपने नियम-कानून लागू होते हैं । हिन्दी में जो तत्सम शुद्ध संस्कृत ) शब्द आते भी हैं, वे संस्कृत की नहीं, बल्कि हिन्दी की प्रजा हैं और इस लिए हर समय संस्कृत व्याकरण ) के कानून की दुहाई नहीं देनी चाहिए। किसी संस्कृत के पंडित से यह अशा करना मुश्किल है । इसका यह अर्थ नहीं कि वाजपेयी जी को इस के लिए अपने संस्कृत के ज्ञान को भुलाने की आवश्यकता पड़ी । संस्कृत-व्याकरण और निरुक्त