पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/९

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के श्राचार्यों ने धूप में अपने केश नहीं सफेद किए थे । उन्हों ने अपने व्यापक अध्ययन और पर्यवेक्षण द्वारा कितने ही ऐसे नियमों का अविष्कार किया था, जो हर काल और हर भाषा के लिए आम तौर से तथा हिन्दी के लिए खास तौर से उपयोगी हैं । अपनी सवा सौ पृष्ठों की छोटी-सी पुस्तक ‘हिन्दी निरुक्त' में यास्क के बतलाए नियमों का उन्होंने बड़े चमत्कारी रूप में इस्तेमाल किया है ! यह सभी जानते हैं कि पुराने अकाट्य नियमों का भी प्रयोग नई परिस्थिति में करना साधारण आदमी का काम नहीं है। पर, वाजपेयी जी केवल पुराणों की देनों से ही संतुष्ट रहने वाले पुरुष नहीं हैं। 'अवधी' के वे सुपुत्र हैं तथा व्रज' और कौरव' की भूमि में चिर और एकान्त निवास के समय उन्हों ने जन-मुख से निकले शब्दों को साधारण श्रोता के तौर पर नहीं सुना है उनके मनन का ही परिणाम है कि वे हिन्दी के शब्दों की सात पीढ़ी तक की सब्ज़ पहचानते हैं ! पुराने शास्त्रोक्यों और आज की जीवित शब्द-राशि की सहायता बिना हिन्दी का व्याकरण और निरुक्त पूर्ण रूप से निष्पन्न नहीं हो सकते । व्याकरण और निरुक्त दोनो बड़े ही नीरस विषय हैं; पर वाजपेयी जी के हाथों में पहुँच कर वे कितने रोचक हो जाते हैं, इसे उनके ग्रन्थों को पढ़ने वाले भली-भाँति जानते हैं ।

व्याकरण, निरुक्त और रस के भी पहलवान !

मैंने वाजपेयी जी को व्याकरण और निरुक्त ( भाषा-लव ) के आचार्य के तौर पर ही यहाँ पाठकों के सामने रखा है; पर वे साहित्य के भी प्राचार्य हैं । पंडित शालग्राम शास्त्री अपने समय के माने हुए संस्कृत के विद्वान् थे । वे,अखिल-भारतीय संस्कृत-साहित्य-सम्मेलन के सभापति भी बनाए गए थे । उनका हिन्दी पर भी कुछ छोह था, जिसका प्रमाण साहित्य-दर्पण' पर उनकी हिन्दी में 'विमला' टीका हैं। शास्त्री जी ने अपनी टीका में पुराने आचार्यों की बहुत कठोर आलोचना अभद्र भाषा में की थी । वाजपेयी जी ने उसे पढ़कर टीका के सुंदर होने की दाद दी; पर साथ ही उनकी खूब खबर लेते हुए कहा----खंडन स्वर्गीय साहित्यकारों की कृतियों का कीजिए। पर उनके लिए शब्द-प्रयोग तो शिष्टजनोचित चाहिए !” “विमला' की कठोर आलोचना लेखमाल के रूप में बहुत समय तक निकलती रही। शालग्रास शास्त्री और उनके अभिन्न मित्र पंडित पद्मसिंह शर्मा उससे बहुत तिलमिलाए ! जवाब में दो-तीन लेख भी लिखवाए; पर वाजपेयी जी के प्रारों को उनके