पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८१

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प्रवृचि हिन्दी की सदा रही है । मीठा' के वजन पर ही 'सीठा' है। मानजा भतीजा, साला में हिन्दी की यह पुविभक्ति विद्यमान है और इसीलिए भतीजा- भतीजे, भानजा-भानजे, साला-साले तथा 'भतीजे को भानजेने, साले से आदि रूप होते हैं। हिन्दी का व्याकरण समझाने के लिए यह विकास-पद्धति समझ लेन्ते की बड़ी जरूरत है। यह सब निक्त का विषय है, इसलिए यहाँ पल्लवित करना 'गंगा की गैल में मदार के गीत' जैसा अच्छा रहेगा। प्रसंग से कुछ इंगित भर कर देना जरूरी है। क्रिया-पदों के बनाने में भी हिन्दी ने अपनी वही दृष्टि रखी है। अवधी तथा ब्रजभाषा में 'श्रावत है' चलता है, परन्तु 'जात है' 'खात है' आदि में नहीं है। हिन्दी में जैसे 'जाता है। वैसे ही श्राता है और उसी तरह 'खाता है। भावत' की तरह 'जावत' तथा 'खावत नहीं होता । श्रावत' में 'व' कहाँ से आ गया ? क्यों अा गया ? कहा जाए कि उच्चारण सौकर्य के लिए का श्रागम हो गया है, तो भी प्रश्न रहेगा कि 'जा' तथा 'खा' में वैसा क्यों नहीं 'जात' खात' में क्या उच्चारण-क्लेश है ? "श्रावत है' की तरह 'जावत है क्यों नहीं ? कोई उत्तर नहीं । भाषा की प्रवृत्ति ! परन्तु राष्ट्रभाषा में एक व्यवस्था है। बात यह कि वहाँ 'व' का श्रागम नहीं, वर्ण-विकार है । 'याति' के 'या' को हिन्दी ने 'जा' बना कर धातु के रूप में ग्रहण किया जाता है। अन्यत्र 'जात है।' 'आयाति' के 'माया'>'पाय' अंश को लेकर अवधी ने 'य' को 'क' कर लिया, जैसी कि प्रवृत्ति वहाँ 'य' को 'व' कर देने की अन्यत्र देखी जाती है-'श्रावा'-'गवा' । ब्रज में- बायो-गयो' प्रयोग होते हैं, परन्तु 'श्रावत' में वह अवधी से प्रभावित है। 'श्रावत' के पीछे फिर 'लावत सोवत रोवत' श्रादि का चलन ब्रजभाषा पर खड़ी-बोली, राजस्थानी, कन्नौजी तथा श्रावधी का प्रभाव है। यह हम परिशिष्ट में विस्तार से समझाएँगे। राष्ट्रभाषा हिन्दी में संस्कृत या प्राकृत का उपसर्ग मात्र 'श्रा' लेफर उसे धातु-रूप दे दिया-श्राता है-जैसे जाता है। एक सीधा मार्ग। हिन्दी ने संस्कृत उपसर्गों से अपनी संज्ञाएँ भी बना ली हैं-'दो प्रवियाँ रामायण की। कोई चीज कहीं किसी काम श्राती है। हम उसे अपने यहाँ लाकर किसी दूसरे ही काम में लाते हैं।