पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८३

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स्त्री-पुल्लिङ्ग सर्वत्र एक-सी रहती है-लड़का है, लड़की है । परन्तु - प्रत्ययान्त क्रियाएँ रूपान्तरित होती हैं--होता, होते, होती-दंदा होता हैं, दं? होते हैं, लड़ाई होती है । संस्कृत में जैसे बालकः सुप्तः अस्ति “बालकाः सुप्ताः सन्ति’ और ‘बाल; सुप्तः अस्ति' तथा 'बालिका सुसा स्ति' । ‘सुप्त’ में परिवर्तन’ और ‘अस्ति'सन्ति’ एक-रूर । ये सब बातें भूल ग्रन्थ के क्रिया- प्रकरश में बताई जाएँगी । परन्तु यह 'ई' के विकास पर कुछ कहना है । प्रत्यय-कल्पना भी की जाती है, जब कि उससे शब्दों की एक लड़ी बनती चली जाती है । एक ही शब्द के लिए प्रत्यय-कल्पना अनावश्यक है । इसी लिए पाणिनि ने ऐसे एकाकी शब्दों की सूचना मात्र दे दी है। सो, हिन्दी की है क्रिया हो' में प्रत्यय लगने से नहीं है, एक स्वतन्त्र शब्द है । “हो” तो ‘भू' का रूप है । उस से यदि है' बने, तो अर्थ इसका भी होता है' ही होना चाहिए, जो कि संस्कृत ‘भवति का होता है। तो फिर वहाँ तमाशा होता है की जगह वहाँ तमाशा है' बोला जाता है सो, ' एक स्वतन्त्र क्रिया-शब्द है। इसका विकास कैसे हुअा, सो देखने की चीज अवश्य है । अस्' ही नहीं, सँस्कृत की सभी धातुएँ प्राकृत-पद्धति से हिन्दी में श्री कर स्वरान्त हो गई हैं । हिन्दी में एक भी धातु व्यंजनान्त नहीं है। प्राकृत-धारा ने हिन्दी को एक हि क्रिया-विभक्ति दी है, जो कि अबधी तथा ब्रजभाषा में ‘करहिं ‘जाहि' आदि रूपों में देखी जाती है। ‘अस’ को ‘अह' होकर आगे यह ‘हि’ विभक्ति लग गई-अहह” । “अहहिहै । हि’ विभक्ति भी ‘स” फ़ा ही अंश है, पर जब वह विभक्ति बन गई, तो नियम-पालनार्थ अह' में की लोई । 'द्वि' के आगे जैसे संस्कृत में द्विवचन-विभक्ति लगती है, ‘एक के ये एकवचन-विभक्ति और ‘बहु के श्रारी बहुवचन-विभक्ति। 'ह' का लोप करके ‘अहइ'। ये दोनों रूप ‘मानस' में जगह-जगह आए हैं । “अहइ के ‘ तथा “इ” में सन्धि होकर 'है' । ब्रजभाषा तथा अवघी में श्र’ और ‘इ' की ऐ सन्धि होती है--‘क’ ‘प आदि । यह अहै' ब्रजभाषा में भी चलती है। इसके ‘अ’ का लोप करके हिन्दी ने 'है' बना लिया यह शब्द १ 'है' ) आया है ब्रजभाषा में होता हुआ । इधर सीधे भी हैं। शाया समझा जा सकता हैं-लखनऊ, शाहजहाँपुर, बरेली के रास्ते । रामचरित मानस में ‘हहि का प्रयोरई भी कई बार है' के अर्थ में हुआ है । इस ‘हहि' के 'हि' का ‘हे’ मुरा- दाबाद तक चलते-चलते घिसकर उड़ गया और 'ह' के 'अ' में तथा बचे हुए।