पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८४

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  • इ’ अंश में 'ऐ' सन्धि होकर 'है' बन गया । इदि > हई> 'है? । यद्यपि हिन्दी

(राष्ट्रभाषा में) -इ की सन्धि प्रायः ए’ होती है- पढे रेआदि में आप आगे देखेंगे; परन्तु ‘इहि” की अवधी कुछ अपनी बातु भी, तो रखे । पीहर की सब बातें ससुराल जाते ही थोड़े ही छूट जाती हैं ! सो करै’ आदि की तरह है' में सन्धि ।। हमने ऊपर श्रइहि” या हहि' से है की उत्पचि बतलाई । *अहहिं’ से ‘इहि” संभव है । संस्कृत 'स्’ का भी ‘अ’ क्रियाओं में बहुत कम रहता है । स्तः, सन्ति, स्वः, स्मः आदि में ‘अ’ कहाँ है ? बहुत ही दुर्बल है । फम क्षेत्र रखता है । इसीलिए किसी-किसी वैय्याकरण ने ट्र' की जगह ‘स' धातु की ही कल्पना की है । “अस्ति' आदि प्रयोगों में ‘अ’ का श्राम । हिन्दी की है' क्रिया के आये य’ का न रहना, या उद्द-घिल जाना , पूर्वागत चीज है । ये ‘अ’ ‘हहि’ ‘अहै' तथा 'हहि आदि ( ‘अस्' के ) रूप विभिन्न प्राकृतों से या किसी एक व्यापक प्राकृत के अवान्तर भेदों से आए हैं । ‘रामचरित मानस में तो खड़ी बोली, ब्रजभाषा तथा राजस्थानी ही नहीं, पंजाबी भाषा के भी शब्द यत्र-तत्र मिलते हैं, तब विभिन्न प्राकृत के ये शब्द वहाँ आ जाएँ, तो कौन सी अचरज की बात है ? हिन्दी की यह है क्रिया ब्रजभाषा में, उत्तर प्रदेश के पूर्वी कुछ अंचलों में तथा पंजाब में भी इसी तरह निर्वाध गति से चलती है । “भू' का होत रूप भी उपर्युक्त अंचलों की इन्-भूपा या बोलियों में तथा उनके साहित्यिक रूपों में चलता है। मानस' में भी होत तथा स्त्रीलिंग ‘होति' के प्रयोग हुए हैं । ब्रजभाषा-साहित्य में तो हैं ही } राष्ट्रभाषा इस ‘होत' में अपनी पुंविभक्ति भर लगा देती है-‘होता है'; जैसे करता है। श्रादि । पंजाबी में ‘त’ को ‘द हो जाता है, चातुस्वर अनुनासिक भी होंदा है’ ‘जदा है' अादि । यह अलग बात है कि ‘होहि का भी प्रयोग है-“हो” में “हि’ लगाकर । ‘होहि-‘होता है। और होती है। उभयत्र ‘हेहि सुभान रहता है, क्योंकि हि' क्षित क्रिया का ही रूप हैं ‘अस'>अह 'इ'>‘हि’ | तभी तो फर' धातु के आगे 'हि' विभक्ति लगाने से ( ‘करईि' का ) अर्य करता है होता है । ‘करता से काम न चलेगा, जब तक ‘है' न सा हो । ‘करहि है नहीं बोला जाता । ‘करहि मात्र चलता है। ‘हि' की उपस्थिति में 'है' व्यर्थ । “पं० पंडित