पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८५

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रामनाथ कौन बोलता-लिखता है ? इसी तरह ‘करहि है' नहीं । “कर तथा ‘क’ भी करहिं के विकास हैं। परन्तु करै’ रूप बनते-बनते 'हि' की स्मृति उड़ गई । इसीलिए मेरठ में ‘करै हैं’ भी बोल देते हैं, आगे ‘रै लै भी । परन्तु राष्ट्रभाषा में होहि' का इलन नहीं है । *हि” के “” का लोप विकल्प से हो जाता है-“होइ’। इसी तरह करहि-करइ जाहि-झाइ आदि द्विविध रूई चलते हैं । धातु के अ' में और विभक्ति के हु’ में सन्धि १९९) होकर फरै’ मरै’ रै’ आदि रूप भी बहाँ ( वर्तमान काल में } बनते-चलते हैं । इसी तरह कर हु बिधि या आज्ञा के रूप भी कर-संकरी होते हैं । यही ‘हु' राष्ट्रभाषा के करो' आदि में भी है। ‘ह्’ का लोप और अ’-“उ” में सन्धि होकर ' । पढ़ो’ ‘गुनो' पटको' ‘झटको' आदि में उसः ‘हु की शात्मा है, जिभक्षि के रूप में । अकारान् धातुओं से भिन्न अल् धातुओं के साथ लगने पर 5 अकेला ही ‘ओ' बन जाता है-जाश्रो, खाओ, आदि । इकारान्त धातु के अन्य इ' या 'ई' को विकल्प से 'इ' हो जाता हैं। संस्कृत का ‘श्रिय’ चाला ‘इकु’ समझिए-‘पियो-यो' जिन-जि' आदि। | इस प्रकार की सब बातें अारो यथास्थान आएँगी । भूमिका का अति विस्तार करना अभीष्ट नहीं । साधारण पाठक ऊब जाते हैं । हिन्दी में स्वकीय तथा परकीय शब्द जैसे विभिन्न व्यक्तियों में, समाज में तथा जातियों में परस्पर वस्तुओं ऊ तथा भार्यों का आदान-प्रदान होता रहता है, उसी तरह प्रतिष्ठित भाषाएँ भी आपस में शब्दों का आदान-प्रदान किया करती हैं। यह आज की नई रीति नहीं हैं, सदा की पद्धति हैं । हिन्दी प्रकृत-परम्परा की भाषा है और इसका अपना' विपुल शब्द-भंडार हैं । संस्कृत-साहित्य में उपलब्ध अनन्त शब्द-राशि भी इसकी अपनी ही सम्पत्ति हैं और संस्कृत के धातु' तो अटूट शब्दलोत के रूप में इसे प्राप्त हैं । परन्तु तो भी, हिन्दी एक स्वतन्त्र भाषा है और किसी भी भाषा के मूल शब्द उसका मूल धन हैं, या होते हैं.--१-क्रिया-घद २-अव्यय ३- विभक्तियाँ तथा ४-सर्वनाम । ये चार मुख्य स्तम्भ हैं, जिन पर किसी भी भाषा का स्वतन्त्र अस्तित्व टिका रहता है। ये शब्द कभी बदलते नहीं, कभी भी किसी दूसरी भाषा से कोई भाषा नहीं लेती ।‘करता है की जगह ‘करोति' छिन्दी में चलेगा नहीं, न ‘जब तुम अाए' की जगह यदा तुम अाए ही