पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८६

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कोई बोलेगः । *म का पुत्र आया' को कभी भी सस्य पत्र या न होगर { उसको मैंने देखा की जगह 'तम् मैंने देखा करना असम्भव है। जब संस्कृत से ही ये शब्द हिन्दी नहीं लेती, तो फारसी-अरबी या अंग्रे श्रादि विदेशी भाषाओं की तो कोई चर्चा ही क्या ! शासकीय-शक्ति ले जब अनाव- श्यक फारसी-अरबी शब्दों को मर कर इसे उर्दू बना दिया था, तब भी उपर्युक्त चलुवर्य ज्य का त्यों अपना रहा। क्रिया-पद आदि न बदले जा सके । हिन्दी ही नहीं, संसार की भी भाषा की यह रीति-नीति है। आवश्यकता के अनुसार भाया परस्पर प्रायः संज्ञः-शब् कः अदान- प्रदान करती हैं । हिन्दी के 'धो धी' तथा 'लोट अंग्रेजी ने लिए, तो उसके छोट' बटन' श्रादि द्दिन्दी ने भी ले लिए । इसारा खर’ फारसी में

  • छर' बन कर था, तो इसने उसके कारीगर' आदि खुदी' से मंजूर कर

लिए । हारा ‘सिंह' अंग्रेजी में नहीं गया, तो वहाँ का लावुन ग्रह न छ। पाया । अदृश्यकतानुसार परतः शब्द-ग्रहण की खेह बात हिन्दी के ही लिए नहीं, संसार की सभी भाषाओं के सम्बन्ध में एक-सँ है। यहाँ तक दि हिन्दी या कोई भी वा अपनी जननी ( पूर्ववर्तिी । भाषा से भी क्रिया-शब्द् तथा सर्वनाम आदि नहीं लेती ! विभक्तियों के सम्बन्ध में भी यही नियम हैं ।

  • राम पाठशाला में वेदान्त-ग्रन्थ पड़ रही हैं इस वाक्य में चिकिय तथा

क्रिया पढ़ रहा है। हिन्दी के अपने शब्द हैं, शेष सुन संस्ल का । परन्तु इस थोड़ें-से ही महत्वपूर्ण अंश के कारण यह हिन्दी का वाक्य' हैं । इसी तर मेरा आँबरेला, स्टिक, केप और रिस्टाच' लेते छान इस वाक्य में मेरा” और' तथा लेते ना' शब्द हिन्दी के हैं। और की जगह की कोई दूसरा शब्द न ऋएगा । इन तीनों शब्दों के कारण यह वो हिन्दी का कई जाए-हिन्दी झा है, यदि देगी हिन्दी इसे कहेगे; क्योंकि अना- वश्यक अंग्रेजी शब्द् भरे हैं । ऐसी हिन्दी को लोग ही हिन्दी' था बबु- अनी हिन्दी कह सकते हैं । इसी तरह की हिन्दी मन:लिपि में छाप कर भारत के अंग्रेज हाकिम उसे हिन्दुस्तानी' कहा करते थे । फौजी श्रवार इसी 'हिन्दुस्तानी' में छुपता था-मन-लिपि में । मुसलमान शासकों के समय हिन्दी में फारसी-अरबी के शब्द इसी तरह जा-बेका कर दिए गए थे और उस विशेष प्रकार की हिन्दी को वे लोग अपनी ( विदेशी ) फारसी-लिपि में लिखते-पढ़ते थे। उस हिन्दी का नास उर्दू' पड़ गया था, जो अब तक है । मुसलमानी शासन के समय हिन्दी में जान-बूझ कर लोगः फारसी-अरबी के