पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८७

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अनावश्यक शब्द भरते थे, अपने आपको “शिक्षित' कहलाने के लिए ! जब तक अपनी भाषा में फारसी-अरबी के शब्द न बोले, कोई उस समय “शिक्षित न कहलाता था; ठीक उसी तरह, जैसे आज-कल' अंग्रेजी के विदा ! ऊँचे दर्जे के सरकारी काम-काज फारसँई में होते थे; मामूली मुंशियाना दफ्तर उर्दू में थे । ऊपर बढ़ने के लिए अच्छी उर्दू का अाना जरूरी था और अच्छी उदै’ वह, जिससे क्रिया, विभक्तियाँ और अव्यय-सर्वनाम इस देश के, शेष सब कुछ फारसी-अरबी का । उर्दू के सम्बन्ध में हम राष्ट्रभाषा के रूप में कुछ लिखते हुए अधिक कहेंगे । यहाँ इतना समझ लीजिए कि फारसी-अरबी का इतना प्रभाव हिन्दी पर पड़ गया था कि अब तक उसकी जान्ध गई नहीं हैं और मेरे जैसे संस्कृत-पण्डित' की कलम से भी, अब तक वैसे शब्द निक- लते रहते हैं, यद्यपि मैं उर्दू-फारसी का अलिफ-बे’ भी नहीं जानता है परन्तु उस मुगलिया-हिन्दी (उर्दू) का तो अर्थ बड़े से बड़े पण्डित झी भी समझ में न आएगा, जब तक वह अरबी-फारसी के शब्द ही नहीं, अरब-ईरान के रीति रिवाज से तथा वहाँ की सामाजिक, भौगोलिक और ऐसी ही दूसरी बातों से परिचित न हो ! फिर भी, क्रिया, अव्यय, सर्वनाम तथा त्रिभक्तियों के कारण उस फारसी-अरबी शब्दसमूह को भी हिन्दी ही कहा जाएगा । जब तक वे मौलिक तत्व न बदलें, कोई नई भाषा नहीं बन सकती; भाषा-भेद नहीं हो सकृदः । अविवेकपूर्ण परकीय तत्वों की भरमार कर देने से भाषा को अपना रूप बिगड़ जाता है । विवेक-पूर्वक ग्रहण करना तो एक अर्थ रखता है और उस तरह गोस्वामी तुलसीदास जैसे सन्त कवि ने भी परकीय शब्द अपने

  • मानस' में ग्रहण किए हैं; हम लोगों का तो कहना ही क्या ! आवश्यक

शब्द किसी भी दूसरी भाषा से लिए जाते हैं; हिन्दी सुदा से लेती झाई है। कविवर भिखारीदास ने लिखा है कि हिन्दी को अपनी बड़ी हूँ तो हैं ही, साथ में संस्कृत का अटूट भंडार भी अपना ही है, संस्कृत-शब्द तो हिन्दी में मिलेंगे ही, फारसी आदि के भी आवश्यक शब्द लिए जाएँगे, परन्तु शर्त यह है कि वे उच्चारण आदि में कठिन न हों- ‘भिलै संस्कृत, पारस्यो, पै अति सुरास जु होय' । | यहाँ ‘परस्यौ' शब्द ध्यान देने योग्य है ---‘फारसी भी’ ! “पारस्य हू' का

  • पारस्' हो गया है। फारसी के शब्द भी, जरूरत पड़ने पर, लिए जाते हैं।