पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८८

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हिन्दी में; परन्तु वे उच्चारण अदि में हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल होने चाहिए। संस्कृत के लिए वैसी कोई शर्त नहीं है। संस्कृत की और किसी विदेशी भाषा की तुलना क्या ? एके अपना मूल स्रोत है, दूसरी चीज दुसरी ही है। इसीलिए “मिलै संस्कृत’’ और ‘पारस्य-फारसी भी, परन्तु अति सुगम जु होय । फारस' शब्द' सभी विदेशी भाषाओं का उपलक्षण है । हिन्दी ही नहीं, आधुनिक प्राय: सभी भारतीय भाषाओं की यही नीति और प्रवृत्ति है। दूसरी प्राकृत' को हम संस्कृत-पद्धति पर ही चलते देखते हैं । संज्ञा-विभक्तियाँ, क्रिया-विभक्तिय, और अन्य आदि प्रायः सब संस्कृत के हैं, कुछ रूप-परिवर्तन के साथ। कुछ क्या, ऐशा रूप-परिवर्तन है कि पह- चीनना ऋठिन हो जाता है । परन्तु पद्धति सशि में वही है। यह होने पर भी, आश्चर्य की बात है कि वहाँ-दूसरी प्राकृत के सभी भेदों में संस्कृत के तदूप १ तत्सम शब्दों का एकान्त अभाव हम देखते हैं ! यदि संस्कृत शब्द लिया। माया, तो पहले उसे छील-छाल कर ‘प्राकृत' बना लिया गया है। प्राकृत बनना एक चीज है और बनाना' उससे मिन्न चीज है। हिन्दी में संस्कृढ़ शब्दों का विकास बराबर हुन्नः है और उस प्रकृत-विकास से उन शब्दों में उच्चारण-सौकर तथा श्रवणु-माधुर्य बहुत बढ़ गया है; परन्तु यह सच नैसर्गिक रूप में प्रवाह-प्राप्त हुआ है। इस नकल पर कोई संस्कृत-शब्दों को तोड़-मरोड़ कर नथा रूप देने का प्रयत्न करे, तो उसकी प्रशंसा न होगी । उस तरह बलात्' तोड़े-मरोड़े शब्दों को ‘विकृत' ही कहा जाएगा, विकसित नहीं । कली का स्वतः खिलना विकास है और उसकी पंखड़ियों को नोच कर उभार देना उसे विकृत कर देना है ! महाकवि विहारी ने ‘स्मर’ को एक जगह ससर कर दिया है । यह विकास नहीं, विकार हुअ । स्मर' हिन्दी में तप चलता है; या फिर ‘काम’ भदन' आदि इसके दूसरे पय्यद । हमर' तो युद्ध के पथ्य-रूप से हिन्दी में प्रसिद्ध है। यह ‘स्मर का “तुमर' ठीक उसी तरह हुआ, जैसे द्वितीय प्राकृत में संस्कृत शब्दों को प्राकृत बनाया जाता था ! ‘नके लगें न नेहू फारि निहारे नैन । विहारी ने कहा है कि स्वभावतः बड़ी आँखें अच्छी लगती है; परन्तु यदि कोई अपनी पलकों को बहुत ऊँचा उठाकर, अाँखें फाड़कर, किसी की ओर देखे कि ये मेरी चितवन से मोह जाएँ, तो क्या होगा ? उसकी ये अाँखें मोहक बन जाएँगई क्या ? सारांश यह कि जन-प्रवाह ने जिस शब्द •को जैसा बना दिया है, वह वैसा बन गया । उस दिशा पर कोई व्यक्ति, चाहे जिस शब्द को, खराश-