पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/८९

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तराश कर कुरूप करेगा, तो भाषा उसे ग्रहण न करेगी। कोई हिन्दी के ‘दहल’ को देखकर वैसा कोई नियम बना दे और तब दसवाँ को भी“दहवाँ कोई कर दे, तो कैसा रहेगा ? संस्कृत के शब्द हिन्दी में कई तरह से चल रहे हैं। बहुत अधिक शब्द ऐसे हैं, जो तनूप चलते हैं, जैशे प्रभाव, प्रभु, प्रेम आदि । तद्भव शब्दों का तो अटूट भंडार है और इनकी जगह संस्कृत के तद्रूप शब्द चल ही नहीं सकते, जैसे दस, डीद आदि संख्या-वाचक ‘क’ को छोड़ शेष सब शब्द हिन्दी के अपने हैं; चाहे ये जिस तरह बने हैं। दो, तीन, चार अदि की जगह' संस्कृत तद्रूप शब्द नहीं दे सकते । 'द्विविध’ ‘त्रिकोण? चतुर्भुज’ ‘पञ्चा- न' आदि में जो संख्यावाचक संस्कृत शब्द समास में हैं, वे सब हिंदी में तद्रूप चलते हैं। परन्तु हिन्दी ने इन संख्यावाचक शब्दों को अलग नहीं अपनाया है; प्रत्युत डिजिध' आदि समस्त शब्द बने-बनाए संस्कृत से ले लिए हैं; ले लेती है ! पृथक स्वतन्त्र रूप से दो, तीन, चार? अादि का ही व्यवहार होगा । कुछ शब्द उभयथा चलते हैं- तद्रप भी और तद्भव भी; जैसे सूरज-सूर्य, सँदेसा–सन्देश, ब्रिक्री-विक्रय अादि । याँ यह ध्यान देने की बात है कि हिन्दी ने संस्कृत शब्दों को जो तद्भव रूप दिया है, उसमें उच्चारश- सौयं ही नहीं, औचित्य का भी ध्यान रखा गया हैं ! ‘ष्ट्रिय से स्त्री-सुलभ ‘पिय' शब्द बना, ऍविभक्ति से पिया' भी । परन्तु ‘प्रिया' सदा इश्वी रूप में रहा है; कोई. परिवर्तन नहीं है। यह् साधारण भाषा की चर्चा है, जो कि कविता-उपन्यास अदि में भी चलती है । दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र तथा राजनीति अादि के ग्रन्थों में तो तद्प संस्कृत शब्द ही अधिक लेने होंगे ! इसके बिना काम ही न चलेगा। संस्कृत से भिन्न स्थिति दूसरी भाषा की है ! हिन्दी में, आगे चलकर विविध प्रान्तीय भाषाओं के भी शब्द आकर मिलेंगे । इससे हिन्दी समृद्ध होगी। कितने ही शव्द हिन्दी-अंचल में भी अभी जन-प्रचलित ऐसे हैं, जिन्हें साहित्यिक हिन्दं में, राष्ट्रभाषा में, लेना जरूरी है। परन्तु थे प्रादेशिक वा प्रान्दीय भाषा के शब्द उसी रूप में और उसी अंश में ले होगे, जिससे भाषा का अखिल भारतीय रूप विकसित होता रहे। यदि प्रादेशिक शब्द की जगह संस्कृत शब्द अधिक दिए जाएँगे, तो सब को ।