न थी, जो सामान्यतः सम्पूर्ण राष्ट्र में समझी-बोली जा सकती हो । मुसल- मानी शासन पश्चिमोत्तर दिशा से आया । दिल्ली पहुँच कर जब वहाँ वे (विदेशी शासक ) जम गए, तो जनभाषा ( खड़ी बोली ) से काम पड़ा । दिल्ली और मथुरा जिले आपस में मिलते हैं ---एक जगह खड़ी-बोली' और दूसरी जगह व्रजभाषा है । मध्य रेखा बीच में है, जहाँ ‘अर' तथा दोनो का सम्मि- लन हो गया है। इसके इधर-उधर दोनों भाषाओं का अपना-अपना क्षेत्र है। रहते-रहते सुसलमान शासक खड़ी-चोली' से अच्छी तरह परिचित हो गए; क्योंकि क्रियाएँ तथा संश-विभक्तियाँ अादि एकदम सीधे रास्ते चलती हैं । परन्तु किसी चीज का नाम याद न पड़ता था, तो वे लोग अपने अभ्यस्त फारसी-अरबी शब्द का प्रयोग कर देते थे । शाक' या साग' न याद पड़ा, या न मालूम हुआ, तो कह देते थे-‘तरकारी में पानी कम छोड़ ना' । “पानी’ और ‘छोड़ना' यहाँ के, ‘तरकारी’ और ‘काम’ विशेषण अन्यत्र के। उन्हें प्रसन्न करने के लिए भारतंय अधिकारी भी वैसी ही भाषा बोलने लगे ! अंग्रेज लोरा देखो, चो छोटा काला अम का क्या लेगा' ऐसी हिन्दी जब बोलते थे, तो उनके मातहत भी, उन्हें खुश करने के लिए और साधारण लोगों पर रोब जमाने के लिए, वैसी ही भाया छुइ प्रयोग करते थे ! 'काले साहब इन बातों में प्रसिद्ध थे । खानसामा तथा अर्दली भी वैसी ही ‘साइबी' हिन्दी झाड़ते थे ! यही स्थिति उस समय थी । | मुसलमान शासक इस देश की यह भाषा अपनी १ फारसी ) लिपि में लिखते भी लगे | उन्हें दूसरे लोग भी कागज-पत्र उसी लिधि मैं और उसी भाषा में लिखकर देने लगे । धीरे-धीरे ‘बड़ी-बोल' ने एक सर्वथा नया रूप ग्रहण कर लिया और इस ‘शाही जबान का नाम ‘उर्दू रख लिया गया । जैसे-जैसे देश में मुसलमानी शासन फैलता गया, उसके साथ यह उर्दू भी फैलती गई । देश के किसी भी भाग में पहुँच कर मुसलमान शासक पहले उर्दू से ही काम चलाते थे । वे सभी प्रान्तीय भाषाएँ सीखने में माथा-पच्ची क्यों करते, जब काम निकल जाता था । कोई बंगाली या दक्षिण-भारतीय भी फारसी- अरबी कैसे समझ लेता है और ये मुसलमान शासक भारत की उन भाषाओं की कठिन समझते थे। दिल्ली ने सबझे उर्दू सिखा ही दी थी । “करता ‘जादा' आदि क्रियाओं के मूल अंश तथा अधिकांश संज्ञाएँ सब सरलता से समझ लेते थे । इस तरह हिन्दी को ( उर्दू के रूप में ) इस राष्ट्र की सामान्य भाधा के रूप में सुललमान शासक ने सब से पहले वृत्त किया ।