पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५१)

( ५१ ) राजकाज में तो हिन्दी इस विदेश परिधान में चली-पनपी; परन्तु कट्टर राष्ट्रवादी लोय विदेशी लिपि तथा विदेशी शब्दों के पुट से उद्वेजित हुए ! लोगों ने इस उर्दू को मुसलमानी भाषा समझा और इससे दूर रहे हैं ऐसे लोगों ने नागरी लिपि में ब्रजभाषा को अश्व दिया । सूरदास की वाणी भारत भर में पहुँच गई । तुलसी के रामचरितमानस' ने धार्मिक जुनता में व्यापक प्रवेश किया। बंगाली वैष्णवों से ब्रजभाषा में कविता की । महाराष्ट्र के सन्त नामदेव ने और गुजरात के नरसी सेहत के व्रजभाषा में उपदेश दिया । इन सन्तों की वश उसी तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, मध्य भारत, विन्ध्य प्रदेश तथा राजस्थाकी अादि में समादृत हुई, जिस तरह महाराष्ट्र-गुजरात में ! सन्त ऋबीर की चाशी ने भी राष्ट्र रूप धारण किया । इनकी भाषा अवधी, ब्रजपा तथा खड़ी-बोली की त्रिवेश सदि। जन्मना सुसलमान होने के कारण खड़ी-ओली ( उर्दू ), व्यापक प्रचार के कारण त्रुजमाया और उनकी अपनी बोली 'अवधी' या बिहारी ! यह संगम २६; शयना एक पृथक रूप रखता है। पंजाब के महान् सन्त गुरु नानक देव कबार-चाई से बहुत प्रभावित हुए । गुरु-ग्रन्थसाहब' में यद्यपि नामदेव, नरस्टी, सदन आदि सभी सन्तों की वाणी संग्रहीत है; परन्तु कृत्रीर को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुए है । गुरु गोविन्द सिंह स्वयं अच्छे कवि थे । अप ने ब्रजभाषा में वॉर-रस की कविता की शौर पंजाब को फिर से वीर-प्रदेश बना दिया। उन्होने प्रतिज्ञा की थी-- ‘जो चिड़ियों को बाज वनाऊँ तौ गुरु गोविन्द सिंह कहा। इस तरह मुसलमानी शासन-काले में उर्दू अब से और ब्रजभाषा धर्माश्रय से देश भर में पहुँची । महाकवि भूषण; ने ब्रजभाषा में बीर-रस की कविता कर के महाराष्ट्र के साथ सम्पूर्ण देश को जागरण दिया । यों द्विविध रूप से हिन्दी ने उस समय राष्ट्रवाषा का रूप ग्रहण किंयः ।। | जब मुसलमानी शासन उखड़ा और अंग्रेजी शासन जमा, तन्न भाषा- समस्य? ने पलटा खाया । जसच का आश्रय हट जाने से उर्दू की वह स्थिति न रह गई ! इधर विचारकों ने प्रकट किया झि उर्दू कोई विदेशी भाषा नहीं है, इस देश की अपनी भाषा है । यदि इस से अनावश्यक विदेशी भाषा के शब्द हटा दिए जाएँ और इसे नागरी लिपि में लिखा ,