पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/९८

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हिन्दी के उदयकाल में यह भेद बड़ा भयानक आया । राजसत्ता ‘हिन्दुस्तानी' के पक्ष में थी; शायद भेद डाल कर शक्ति क्षीण करने के लिए ही । इधर भारतेन्दु-मशडल ने हिन्दी का पक्ष लिया। इसी संवर्ष में विजयी होने पर जनता ने वायू हरिश्चन्द्र को भारतेन्दु पद से विभूषित किया । राजा साहब शरद के नक्षत्र १ सितारे हिन्द } बनाए गए सरकार की ओर से, तो जनता ने अपने प्रिय नेता को ‘भारतेन्दु बना दिया ! उस समग्र जनता की विजय हुई, किन्दी का पक्ष ही देश ने ग्रहण किया । परन्तु शासक-गं अपनी उसी ( *न्दुिस्तानी' 6 ) धुन में रह ।। भारतेन्दु ने हिन्दी की नींव गहरी लगा दी थी, जिस पर आगे चल कर काशी नारी-प्रचारिणी सभा' का विशाल भवन खड़ा हुआ। सभा ने सन् १६.१० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ को जन्म दिया। अब देश में हिन्दी की दो संस्थाएँ हो गई और इनमें काम के बँटवारा-सा हो गया । आगे सभा ने हिन्दी-साहित्य के विविध अगों को पूर्ण तथा बलिष्ठ बनाया और सम्मे- नन ने प्रचार का काम सँभाला। जिन प्रदेशों को लोग 'हिन्दी-भापी कहते हैं, वहीं नहीं; कलकत्ता, बम्बई, मदरस, इन्दौर, नागपुर, कराची, लाहौर आदि में सम्मेलन' के वार्षिक अधिवेशन धूमधाम से हुए। हिन्दी के रूप में राष्ट्रीयता सर्वत्र पहुँच रही थी । विभिन्न अहिन्दी-भाषी प्रदेशने ‘सम्मेलन' के अधिवेशन अपने यहाँ बुला कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्पष्टतः स्वीकार किया । इस प्रवृत्ति में न कोई दबाव, न प्रभाव ! केवल राष्ट्रीय भावना का जोर । राजर्षि टंडन, महात्मा गान्धी को भी सम्मेलन में ले ८ र तन इसका प्रभाव-क्षेत्र सहसगुण बढ़ गया । | इधर स्वराज्य-अन्दोलन भी बढ़ता जा रहा था और धीरे-धीरे हुन विजयी होते जा रहे थे। जब स्वराज्य समीप अले लगा, तो एक बार फिर ‘हिन्दुस्तानी' की अावाज जोर से उठी---‘राष्ट्रभाषा मिली-जुनी हिन्दुस्तानी हो और वह दोनो ( नागरी तथा फारसी ) लिपियों में चले । भाषा के स्वरूप पर उतना झगड़ा न था, जितना इस बात पर कि देश में सबको फारसी लिपि भी अनिवार्यतः सीखनी पड़ेगी । इस लिपि की दुरूता तथा भ्रमजनकता सर्व-विदित है । सम्मेलन' अपने हिन्दी-नारी के मार्ग पर बढती वाया और देश स्वागत करता गया । सन् १९३७-३८ में ( ‘प्रान्तीय स्वराज्य' आने पर ) फिर जोर से ‘हिन्दु- स्तानी की लहर चली । भारत के प्रायः सभी प्रदेशों में कांग्रेसी-मन्त्रिमण्डल