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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आविकांत इनकी रचनाएँ अधिकांश मे साहित्यिक अपभ्रंश की लिखी हुई हैं। फिर मी हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल की परम्परा को समझने में बहुत सहायक हैं। _ अभी तक मैंने अपभ्रश, राजस्थानी, गुजराती और मैथिली रचनाओं की ओर ही संकेत किया है। जिन प्रदेशों मे आगे चलकर अवधी और व्रजभाषा का साहित्य लिखा गया, उनमे बसनेवाले कवि इन दिनों किस प्रकार की रचना कर रहे थे, इस बात का कोई प्रामाणिक मूल हमारे पास नहीं है। राजस्थान और बिहार के बीच का प्रदेश उन दिनो कवियों से खाली नहीं होगा, यह तो निश्चित है। परन्तु ऐसी प्रामाणिक पुस्तके अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं, जिनके अाधार पर इन प्रदेशों की इस काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों का ठीक- ठीक अन्दाज लगाया जा सके। परम्परा-क्रम से कुछ कवियो के नाम प्राप्त अवश्य होते हैं और स्वचित्-कदाचित् उनके नाम पर चलनेवाली पुस्तके भी मिल जाती है। परन्तु बहुत कम स्थलों पर उनकी प्रामाणिकता विश्वास-योग्य होती है। इसलिए ब्रजभापा, अवधी, भोजपुरी अादि के पूर्ववर्ती साहित्य के काव्य-रूपों के अध्ययन के लिये हमे बहुत-कुछ कल्पना से काम लेना पड़ता है। इस विषय में संस्कृत के चरित-काव्य, कथा, आख्यायिका और चंप-रूप में लिखित रोमास और निजधरी कथाएँ और ऐतिहासिक काव्यों की परम्परा हमारी सहायता कर सकती हैं। यथास्थान हम इनकी चर्चा करेंगे। साधारणतः सन् ईसवी की दसवीं से लेकर चौदहवीं शताब्दी के काल को 'हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल' कहा जाता है | शुक्लजी के मत से सं० १०५० (सन् ६६३) से संवत् १३७५ (सन् १३१८ ई०) तक के काल को हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल कहना चाहिए । शुक्लजी ने इस काल के अपभ्रंश और देवभाषा-काव्य की बारह पुस्तकें साहित्यिक इतिहास मे विवेचना योग्य समझी थीं। इनके नाम हैं-(१) विजयपाल रासो, (२) हम्मीर रामो, (३) कीर्तिलता, (४) कीर्तिपताका, (५) खुमान रासो, (६) बीसलदेव रासो, (७) पृथ्वीराज रासो, (८) जयचन्द्रप्रकाश, (६) जयमयंक जसचन्द्रिका, (१०) परमाल रासो (श्रल्हा का मूल रूप), (११) खुसरो की पहेलियाँ और (१२) विद्यापति- पदावली! "इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का लक्षण-निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमे से अन्तिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोडकर शेष सभी ग्रन्थ वीरगाथात्मक हैं । अतः आदिकाल का नाम 'वीरगाथा-काल' ही रखा जा सकता है।" ऊपर अपभ्रश की जिस सामग्री की चर्चा की गई है, उसमे से कुछ पुस्तके अवश्य ऐसी हैं जिनको साहित्यिक इतिहास में विवेच्य माना जा सकता है। संदेशरासक ऐसी ही सुन्दर रचना है। प्राकृत पिंगल-सूत्रा में श्राये हुए कई कवियों की रचनाएँ निश्चय ही साहित्य के इतिहास मे विवेच्च हैं । 'मिश्रवधु-विनोद' मे कुछ जैनग्रंथों को इस काल मे रखा गया था । शुक्लजी ने उनमे से बहुत-सी पुस्तकों को विवेचन-योग्य नहीं समझा था। कारण बताते हुए उन्होंने कहा था कि इन पुस्तकों में से (१) कुछ पीछे की रचनाएँ हैं, (२) कुछ नोटिस-मात्र हैं और (३) कुछ जैन-बर्म के उपदेश-विषयक हैं। ___ इधर हाल की खोजों से पता चलता है कि जिन बारह पुस्तको के आधार परशुक्लनी ने इस काल की प्रवृत्तियों का विवेचन किया था, उनमें से कई पीछे की रचनाएँ हैं और कई