पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/२२

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प्रथम व्याख्यान नोटिस-मात्र हैं और कई के सम्बन्ध मे यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनका मूलरूप क्या था। उपदेश-विषयक उन रचनाओं को जिनमे केवल सूखा धमोपदेश-मात्र लिखा गया है, साहित्यिक विवेचना के योग्य नहीं समझना उचित ही है। परन्तु ऊपर जिस सामग्री की चर्चा की गई है, उनमे कई रचनाएँ ऐसी हैं, जो धार्मिक तो है, किन्तु उनमे साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है। धर्म वहाँ कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है। जिस साहित्य मे केवल धार्मिक उपदेश हों, उससे वह साहित्य निश्चितरूप से भिन्न है, जिसमे धर्म-भावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ही जो हमारी सामान्य मनुष्यता को अान्दोलित, मथित और प्रवाहित कर रही हो। इस दृष्टि से अपभ्रंश की कई रचनाएँ, जो मूलतः जैन-धर्म-भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निस्सन्देह उत्तम काव्य हैं और विजयपाल रासो और हम्मीर रामो की भाँति ही साहित्यिक इतिहास के लिए स्वीकार्य हो सकती है। यही बात बौद्ध सिद्वों की कुछ रचनाओं के बारे में भी कही जा सकती है। इधर कुछ ऐसी मनोभावना दिखाई पड़ने लगी है कि धार्मिक रचनाएँ साहित्य मे विवेच्य नहीं हैं। कभी-कभी शुक्लजी के मत को भी इस मत के समर्थन में उद्धृत किया जाता है । मुझे यह बात बहुत उचित नहीं मालूम होती । धार्मिक प्रेरणा या श्राध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए । अस्तु । इधर जैन-अपभ्रश-चरित-काव्यों का जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है, वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय के मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्यन हीं हैं। स्वयम्भू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त और धनपाल-जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्यक्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य-क्षेत्र मे अविवेच्य हो जाएगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य-सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। वस्तुतः लौकिक निजन्धरी कहानियो को श्राश्रय करके धर्मोपदेश देना इस देश की चिराचरित प्रथा है। कभी-कभी ये कहानियों पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों के साथ धुला दी जाती हैं। यह तो न जैनो की निजी विशेषता है, न सूफियो की । हमारे साहित्य के इतिहास मे एक गलत और बेबुनियाद बात यह चल पड़ी है कि लौकिक प्रेम-कथानकों को श्राश्रय करके धर्म-भावनाओं का उपदेश देने का कार्य सूफी कवियों ने प्रारम्भ किया था। बौद्धों, ब्राह्मणों और जैनों के अनेक प्राचार्यों ने नैतिक और धार्मिक उपदेश देने के लिये लोक-कथानको का आश्रय लिया था। भारतीय सतों की यह परम्परा परमहस रामकृष्णदेव तक अविच्छिन्न भाव से चली आई है। केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम अन्यों को साहित्य-सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदिकाव्य से भी हाथ धोना पडेगा, तुलसी-रामायण से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा, और जायसी को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा। मध्ययुग के साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्मसाधना ही रही है। जो भी पुस्तके आज संयोग और सौभाग्य से बची रह गई हैं, उनके सुरक्षित रहने का कारण प्रधानरूप से धर्मबुद्धि ही रही है। काव्यरस की भी वही पुस्तकें सुरक्षित रह