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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल सकी हैं, जिनमें किसी-न-किसी प्रकार धर्ममाव का संस्पर्श रहा है। धार्मिक अनुयायियों के अभाव में अनेक बौद्धकवियों की रचनाओं से हमें हाथ धोना पड़ा है। अश्वघोष के टक्कर के कवि भी उपेक्षावश भुला दिए गए हैं। यदि मंगोलिया के रेगिस्तानों ने कुछ पन्ने बचा न रखे होते तो अश्वघोष के नाटकों का हमे पता भी नहीं चलता। निस्सन्देह ग्रन्थ-संग्रह-कर्ताओं के उत्साह से भी कुछ पुस्तकों की रक्षा हुई है। 'सन्देशरासक' और 'कीर्तिलता' इसी श्रेणी की रचनाएँ हैं। परन्तु उनकी संख्या बहुत कम हैं और ये सव मिलाकर केवल इस श्रेणी के विशाल साहित्य की सम्भावना की ओर इशारा भर करती है। इनसे हम सिर्फ यह अनुमान कर सकते हैं कि किसी समय इस श्रेणी का साहित्य प्रचुर मात्रा मे वर्तमान था, जो उनके उत्साही संरक्षको और कद्रदानों के अभाव में लुप्त हो गया है। एक दूसरे प्रकार का लौकिक रस का साहित्य भी बचा जरूर है, लेकिन उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहा है और आज जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसकी प्रामाणिकता के विषय में सब समय अॉख मूंदकर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवनचरित को उपजीव्य बनाकर काव्य लिखने की प्रथा इस देश मे सातवीं शताब्दी के बाद तेजी से चली है। हमारे बालोच्य काल में यह प्रथा खूब बढ़ गई थी। इनमें कई ऐतिहासिक पुरुष कवियों के आश्रयदाता हुश्रा करते थे। चन्द के आश्रयदाता पृथ्वीराज थे और विद्यापति के आश्रयदाता कीर्तिसिंह । इन अाश्रय- दाताओं का चरित लिखते समय भी उसे कुछ धार्मिक रंग देने का प्रयत्न किया जाता था। रामों में कवि चन्द की स्त्री ने प्राकृत राजा के यश-वर्णन को अनुचित कहा था। उसने बताया था कि साधारण राजा का यश गाने की अपेक्षा भगवान का यश गाना कहीं अच्छा है। इसपर कवि ने विस्तार से दशावतारचरित का वर्णन किया। जिस आकार में यह दशावतारचरित है, वह सम्भवतः परवत्तौ रचना है। मेरे इस विश्वास का कारण मैतीसरे व्याख्यान में बताऊँगा। परन्तु ऐसा लगता है कि रासोकार ने पृथ्वीराज को भगवत्स्वरूप बताकर कहानी मे थोड़ा धार्मिकता का रंग देना चाहा था। कीर्तिलता के कवि ने मी पाठक को कुछ पुण्यलाभ का प्रलोभन दिया था- 'पुरुष कहाणी हाँ कहाँ जसु पस्था पुनु ।' इसका कारण यही था कि इस काल को रूप और गति देनेवाली शक्ति धर्मभावना ही थी। धार्मिक समझे जानेवाले साहित्य को कुछ अधिक सावधानी से सुरक्षित रखा गया था, इसलिये वह कुछ अधिक मात्रा में मिलता भी है। प्रायः इन धर्मग्रन्या के प्रावरण में सुन्दर ऋवित्व का विकास हुआ है । तत्कालीन काव्य-रूपो और काव्य-विषयों के अध्ययन के लिये इनकी उपयोगिता असदिग्व है । 'मविसयतकहा धार्मिक कथा है, पर इतना सुन्दर कान्य उस युग के साहित्य मे कहाँ मिलेगा! श्रीराहुल साकल्यायन ने उच्छ वसित भाव से घोषित किया है कि 'स्वयम्भू का रामायण हिन्दी का सबसे पुराना और सबसे उत्तम काव्य है । रामचरितमानस और सूरसागर धार्मिक काव्य नहीं तो क्या है ? राजशेखर सूरि जैनमत के साधु थे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार नन्द दास या हितहरिवंश वैष्णव धर्म के साधु थे। राजशेखर ने नेमिनाथ का चरित वर्णन करते हुए, 'नेमिनाथ फागु' लिखा था और नन्द- दास ने अपने उपास्य की लीलाओं का वर्णन करते हुए रासपंचाध्यायी। दोनों में ही धर्म- भाव प्रधान है और दोनों मे ही कवित्व है । जिस प्रकार 'राधा-सुधानिधि' में राधा की शोभा के