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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल का रूप देने के लिए कवि प्रायः ऐसा किया करते हैं। अनेक ऐसे अथ मिलते हैं, जिनके कर्ता समकालीन न थे, पर जिन्होंने वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग किया है। राजस्थान मे चारण अाज भी जब प्राचीन काल के वीर-पुरुषों पर अंथ तया फुटकर गीत आदि लिखते हैं, तब वर्तमानकालिक किया का प्रयोग करते हैं। वारहठ केसरिसिंह-कृत 'प्रताप- चरित्र' इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जो सं० १९६२ मे लिखा गया है।" -० स्था० सा०, पृ० ८१ आज से कोई बारह वर्ष पूर्व मैंने कहा था कि राजपूताने में प्राप्त कुछ काव्य-ग्रंथों के श्राधार पर इस काल का कोई भी नामकरण उचित नहीं है । उस समय मेरा विश्वास था कि जिन ग्रंथों के आधार पर उक्त काल का नामकरण किया गया है, वे अधिकाश प्रामाणिक हैं। आज लग रहा है कि इनमें से कई की प्रामाणिकता सन्दिग्ध है और कई नोटिस- मात्र हैं। रही राजपूताने के साहित्य की बात, सो उसके विषय मे मैनारियाजी का यह मत उल्लेख-योग्य है- "इसके अतिरिक्त थे रासो-ग्रन्थ, जिनको वीर गाथाएँ नाम दिया गया है और जिनके आधार पर वीर गाथाकाल की कल्पना की गई है, राजस्थान के किसी समय- विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते । केवल चारण, भाट आदि कुछ वर्ग के लोगों की जन्म-जात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं। प्रभुभक्ति का भाव इन जातियों के खून में है, और वे ग्रन्थ उस भावना की अभिव्यक्ति हैं। यदि इनकी रचनाओं के आधार पर कोई निर्णय किया जाय, तब तो वीरगाथा-काल राजस्थान मे आज भी ज्यों-का-त्यों बना है। क्योकि राजा-महाराजाओं अथवा उनके पूर्वजों की कीर्ति के अन्य प्रादि लिखने का काम ये लोग आज भी उसी उत्साह के साथ कर रहे हैं, जिस उत्साह से पहले किया करते थे। परन्तु राजस्थान के वातावरण तथा इन जातियों से अपरिचित लोगों का यह बात समझ . लेना कुछ कठिन है 1" -राजस्थानी भाषा और साहित्य',०८१ ___ अब, सही बात यह है कि चौदहवीं शताब्दी तक देशी भाषा के साहित्य पर अपन श- भाषा के उस रूप का प्राधान्य बना रहा है, जिनमे तद्भव शब्दों का ही एकमात्र राज्य था। इस बीच धीरे-धीरे तत्सम-बहुल रूप प्रकट होने लगा था। नवीं-दसवी शताब्दी से ही बोलचाल की भाषा मे तत्सम शब्दो के प्रवेश का प्रमाण मिलने लगता है और १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ से तो तत्सम शब्द निश्चित रूप से अधिक मात्रा मे व्यवहृत होने लगे। क्रियाएँ और विभकियों तो ईषत् विकसित या परिवर्चित रूप में बनी रहीं, पर तत्सम शब्दों का प्रचार बढ जाने से भाषा भी बदली-सी जान पड़ने लगी । भक्ति के नवीन आन्दोलन ने अनेक लौकिक जन-आंदोलनों को शास्त्र का पल्ला पकड़ा दिया और भागवत पुराण का प्रभाव बहुत व्यापक रूप से पड़ा। शाकर मत की दृढ प्रतिष्ठा ने भी बोलचाल की भाषा मे और साहित्य की भाषा मे तत्सम शब्दों के प्रवेश का सहारा दिया। तत्सम शब्दों के एकाएक प्रवेश से पुरानी भाषा एकाएक नवीन रूप मे प्रकट हुई यद्यपि वह उतनी नवीन थी नही। दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के काल का साहित्य अपभ्रंश-प्रधान साहित्य है। __'युक्तिव्यक्तिप्रकरण' का उल्लेख पहले ही हो चुका है। इस अन्य के लेखक दामोदर शर्मा संभवतः राजकुमारों के शिक्षक थे। मैंने सुना है कि यह ग्रंथ डॉ० श्रीसुनीति- कुमार चटर्जी द्वारा सम्पादित होकर छप तो चुका है, लेकिन अभी प्रकाशित नहीं हुआ।