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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

२० हिन्दी साहित्य का आदिकाल रोण भणिय-कुवलयमालाए पुरिसद्वपिणीए पातश्रो लवित. । इम च सोऊण अाफोडिऊण एको उहिउ चट्टो । मणिग्रंच णेणं यदि पाहित्येन ततो मई परियेतव्य कुवलयमाल । अरणेण भणियं-अरे ! कुवणु तउ पाण्डित्यु १ तेण भणियं-षडंगु पढमि, त्रिगुण मन्त्र पढमि, किं न पाण्डित्यु ? अण्णण मणि-अरे ! ए मंत्रहिं तूगुणेहिं परिणिज्जइ, जो सहितौ पातौ मि (वि) दइ तं परिणेति । अण्णेण भणिय-अह सहितउन्जो ग्वाथी पदमि । तेहि भगिन-कइसी रे व्याघ्रसामि ! गायः ? तेण भणिों-इम ग्याथ- सा ते भवतु सुप्रीता अबुधस्य कुतो बल ! यस्य यस्य यदा भूमिः सर्वत्र मधुसूदनः ।। तं च सोऊण अण्णण सकोप भणि- अरे अरे मूर्ख ! स्कन्धकोपि गाथ भणसि! अम्ह गाथ ण पुच्छह । तेहिं भणि-त्वं पठ महो यजुस्वामि ! गाथः । तेण भणियं-मुटु पढमि- पाए कप्पे मत्तगय गोदावरी ण मुर्यति । को तहु देसहु आप (प) तयि को न पराणाति वात्त ।। अगणेण भणि-अवे । सिलोगो अम्हे ण पुच्छह ग्वाथी पठहो । तेण भणि सुट्ट पढमि- तंबोलरइयराउ प्रहरी कामिन दृष्टवा। अम्ह चित्र खुमई मणो दारिद्रगुरु शिवारेइ ।। तउ सन्चेहि विभणिर्थ-श्रहो ! मह यजुस्वामी विदग्ध पंडितु विद्यावंतो 'ग्वार्थी पदति, एतेन सा परिणेतन्या। अरणेण भणिय-अरे ! केरिसो सो पातउ जो तीय लवितु । तेण भण्डि-राजागणे मह पठितु श्रासि, सो से विस्मृतु, सन्तुलोकु पढति ति ।। इमं च सोऊण चह रसायण चिन्तियं राहउत्तेग-अहो! अणहावष्टियाणं असंबद्धपलावत्तण चारण ति ॥" --कुवलयमालाकथायाम् [जे0 भा० ता० १२, १३१, पृ० १०६-१०७] [अजी भटपुत्रो, तुम नहीं जानते, राजकुल मे क्या वृत्तात (चल रहा) है ! उन्होंने कहा-कहो हे व्याघ्रस्वामी, क्या वार्ता है राजकुल मे ? उसने कहा-पुरुष-द्वेपिणी कुवलयमाला ने पात (पत्र) लगा दिए हैं। यह सुनकर एक विद्यार्थी फड़ककर उठा और बोला-निर्णय यदि पाण्डित्य से (होनेवाला है) तो मैं व्याह करूँगा कुवलयमाला से ।