पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/३८

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द्वितीय व्याख्यान स्फीत होती रहनेवाली पुस्तकों का भी यदि धैर्यपूर्वक परीक्षण किया जाय तो कुछ-न-कुछ उपयोगी बात अवश्य हाथ लगेगी। न तो हमे परम्परा से प्रचलित बातों को सहज ही अस्वीकार कर देना चाहिए और न उनकी परीक्षा किए बिना उन्हें ग्रहण ही कर लेना चाहिए। इस अन्धकार-युग को प्रकाशित करने योग्य जो भी चिनगारी मिल जाय उसे सावधानी से जिला रखना कर्त्तव्य है, क्योंकि वह बहुत बडे श्रालोक की सभावना लेकर आई होती है, उसके पेट मे केवल उस युग के रसिक हृदय की धड़कन का ही नही,केवल सुशिक्षित चित्त के संयत और सुचिन्तित वाम्पाटव का ही नहीं, बल्कि उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उदासित करने की क्षमता छिपी होती है । इस काल की कोई भी रचना अवज्ञा और उपेक्षा का पात्र नहीं हो सकती। साहित्य की दृष्टि से, भाषा की दृष्टि से या सामाजिक गति की दृष्टि से उसमे किसी-न-किसी महत्त्वपूर्ण तथ्य के मिल जाने की सभावना होती ही है। परन्तु प्रश्न यह है कि इस काल मे आज के हिंदीभाषी कहे जानेवाले क्षेत्र की देशी भाषा मे लिखित कोई पुस्तक अपने मूल रूप मे क्यों नहीं प्राप्त होती है इसका कोई-न-कोई ऐतिहासिक कारण होना चाहिए । इस काल की पुस्तके तीन प्रकार से रक्षित हुई है-(१) राज्याश्रय पाकर और राजकीय पुस्तकालयो मे सुरक्षित रहकर, (२) सुसगठित धर्मसम्प्रदाय का श्राश्रय पाकर और मठों, विहारों आदि के पुस्तकालयों मे शरण पाकर और (३) जनता का प्रेम और प्रोत्साहन पाकर । राज्याश्रय सबसे प्रबल और प्रमुख साधन था । धर्म-सम्प्रदाय का सरक्षण उसके बाद ही पाता है। तीसरे प्रकार से जो पुस्तके उपलब्ध हुई हैं, वे बदलतीरही हैं। जनता को उनके 'शुद्ध रूप से कोई मतलब नहीं था, श्रावश्यकतानुसार उसमे काट-छॉट भी होती रही है, परिवर्तन-परिवर्द्धन भी होता रहा है और इस प्रकार लोकरुचि के साँचे मे दलते हुए उन्हें जीवित रहना पड़ा है। पाल्हा काव्य इसी प्रकार लोकचित्त की चचल सवारी पर चलता श्राया है। यह बता सकना कठिन है कि उसका मूल रूप कैसा था, परन्तु वह जनता को प्रिय था, उसके सुख-दुःख का साथी था और अपने इस महान् गुण के कारण वह जनता की पीति पा सका और जीवित रह गया। उसके समवयस्क काव्य वह प्रीति नहीं पा सके और अपना शुद्ध रूप लिए अस्त हो गए। देशी भाषा की कुछ दूसरी पुस्तकें जैन सम्प्रदाय का आश्रय पाकर साम्प्रदायिक भाण्डारों में सुरक्षित रह गई हैं । उनका शुद्ध रूप भी सुरक्षित रह गया है । कुछ पुस्तके बौद्धधर्म का अाश्रय पाकर और बौद्ध नरपतियों की कृपा से बच गई थी, जो आगे चलकर हिंदुस्तान के बाहर से पाई जा सकी है। परन्तु जो पुस्तके हिंदू-धर्म और हिंदू-नरेशों के संरक्षण से बची हैं, वे अधिकाश संस्कृत में हैं। इस श्रणी की रचनाएँ मिलती अवश्य हैं, पर हमारे बालोच्य काल के देशी भाषा के साहित्य के सम्बन्ध मे उनसे कोई विशेष सूचना नहीं मिलती। इस उपेक्षा का कारण क्या है? यह कहानी सुनने योग्य है। श्रीहर्षदेव के शक्तिशाली साम्राज्य के टूट जाने के बाद भी कान्यकुब्ज का गौरव बना रहा। उनके सेनापति भरिष्ठ और उनके वंशजों ने कान्यकुब्ज पर कुछ दिनों तक शासन किया। नवीं शताब्दी के प्रारम मे उनकी शक्ति क्षीण हो गई, परन्तु राजलक्ष्मी फिर भी कान्यकुब्ज को छोड़ने को तैयार नही थी। पूर्व के पाल, दक्षिण के राष्ट्रकूट और