पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/४०

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द्वितीय व्याख्यान बाहर से बुला-बुलाकर अनेक ब्राह्मण-वंशो को दान देकर काशी में बसा रहे थे । संस्कृत को इन्होंने बहुत प्रोत्साहन दिया। जिस प्रकार गौड (बंगाल) देश के पाल, गुजरात के सोलंकी और मालवा के परमार देशभाषा को प्रोत्साहन दे रहे थे, वैसा इस दरबार मे नहीं हुन्ना | इस उपेक्षा का एक कारण तो यही जान पडता है कि ये लोग बाहर से आये हुए थे और देशीय जनता के साथ दीर्घकाल तक एक नहीं हो पाए थे | दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मध्यदेश मे जिस संरक्षणशील धार्मिक विचारधारा की प्रतिष्ठा थी, उसमे संस्कृत-भाषा और वर्जनशील ब्राह्मण-व्यवस्था से अधिकाधिक चिपटे रहना ही स्थानीय जनता की दृष्टि मे ऊँचा उठने का साधन था। बहुत दिनों तक काशी और कान्यकुब्ज के इन गाहडवाल या गाहडवार राजाओं को राठौर समझा जाता रहा, क्योंकि जोधपुर के राठौर अपने को जयचन्द्र (अन्तिम गाहडवाल राजा) के वशम बताते हैं। राठौर शब्द का संस्कृत रूप 'राष्ट्रकूट' है और इसी नाम का एक क्षत्रिय-वश दक्षिण मे बहुत दिनों तक शासन कर चुका है। इसीलिये कुछ लोगों की धारणा यी कि दक्षिण के राष्ट्रकूट उत्तर के गाइडवाल और जोधपुर के राठौर एक ही वश के है। पर यह बात शायद ठीक नहीं है। दक्षिण के चन्द्रवशी राष्ट्रकूटों के साथ जोधपुर के सूर्यवंशी राठौरों का सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि काशी-कन्नौज के गाहहवाल दक्षिण से ही पाये थे। दो याते इनके दक्षिण से आने के प्रमाण-रूप में उद्धृत की जाती है, जिनमे एक तो विशेप वजनदार नहीं है, पर दूसरी योडी वजन रखती है। यह कहा जाता है कि जिन ब्राह्मणों को गोविन्दचन्द्र ने दान दिया था, वे उन गोत्रों और शाखाओं के हैं, जो अाजकल उत्तर में नहीं मिलते, बल्कि दक्षिण मे मिलते हैं, इसलिये ये ब्राह्मण दक्षिण से बुलाए गए थे और यह बात सिद्ध करती है कि गाइबाल दक्षिण से श्राए थे। लेकिन यह बात जंचती नहीं। उन दिनों गोविन्दचंद्र के इलाके से ब्राह्मण दूर-दूर के प्रदेशों में बुलाए गए थे, गोविन्दचन्द्र को दक्षिण से ब्राह्मण बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं थी और हुई भी तो यह सूचित नहीं करता कि वे दक्षिण से आए थे। सेनों ने कान्यकुब्ज ब्राह्मणों को बुलाया या; पर वे स्वय कर्णाट देश से आए थे । ब्राह्मणो को विद्या और कर्मकाण्ड की कुशलता के कारण बुलाया गया होगा, यही ज्यादा संभव है। उडोसा के केसरी राजानों ने भी अपने देश में कान्यकुब्ज ब्राह्मणो को दुलवाया था। इसी प्रकार गुजरात के राजा मूलराज और दक्षिण के चोल राजाओं के बारे में भी प्रसिद्ध है कि उन्होने कान्यकुब्ज से ब्राह्मण को बुलाकर अपने राज्य मे बसाया था। फिर, यह काल उत्तर के शास्त्र-परायण ब्राह्मणों के भागने का समय है। हो सकता है कि आज जो ब्राहाण दक्षिण में मिल रहे है, वे इसी समय इधर से उधर चले गए हों। परन्तु दूसरी बात कुछ ज्यादा वजनदार दिखाई देती है। चौदहवीं शताब्दी के जैन कवि नयचन्द्र सूरि ने जयचन्द्र से लगभग दो सौ वर्ष बाद एक नाटिका लिखी थी--- रम्भामंजरी। यद्यपि यह पूरी नाटिका महाराष्ट्री प्राकृत में है, फिर भी प्रथम अक मे वैतालिकों ने जयचन्द्र की स्तुति में इस प्रकार गाया है- जरि पेखिला मस्तकावरि केश कलापु। तरि परिक्खता मयुराचे पिच्छ प्रतापु॥