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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

४० हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल कीडे, मायापंक में श्रापाद-मस्तक डूबे हुए, अज्ञानी जीव केवल घृणा करने और वरस खाने के पात्र माने जाते थे | गृहस्थ इन योगियों से डरता था। इब्नबतूता ने ग्वालियर- कालिंजर मे इन योगियों को देखा था। उन दिनों लोग इनसे भयभीत थे क्योंकि उनका विश्वास था कि ये आदमियों को खा जाते हैं ! इस प्रकार जनता के प्रति अवज्ञा और घृणा का भाव रखनेवाले लोग लोकभाषा मे कुछ तिखते मी हो तो वह लोक-मनोहर हो नहीं सकता। कुछ थोड़ी-सी रचनाएँ इन योगियों की मिल जाती है। पर एक तो उन्हें जैन पुस्तकों के समान संगठित भाण्डारों का प्राश्रय नहीं मिला, दूसरे वे पाल्हा आदि की भॉति लोक-मनोहर भी नहीं हो सकी। इनकी रक्षा का भार संप्रदाय के कुछ अशिक्षित साधुओं के हाथों रहा । उन्होंने इन रचनात्रों को प्रमाणित रूप में सुरक्षित रखने का प्रयत्न नहीं किया । जो कुछ भी साहित्य वचा है, वह केवल इस बात की सूचना दे सकता है कि वह किस श्रेणी का रहा होगा और उसकी प्राणवस्तु कैसी थी। परबत्ती साहित्य मे इन योगियों का उल्लेख दो प्रकार से पाया है-(१) सूफी कवियों की कथा में नाना प्रकार की सिद्धियों के आकार के रूप में और (२) सगुण या निर्गुण भक्त कवियों की पुस्तकों में खण्डनों और प्रत्याख्यानों के विषय के रूप में । दोनों ही बाते इनके प्रभाव की सूचना देती हैं। कभी-कभी दादू-पंथी या निरंजनी जैसे संप्रदायों के संत-वचन-संग्रहों मे इन नाथ सिद्धा की कुछ रचनाएँ संगृहीत मिल जाती हैं। हाल ही में मैंने इस प्रकार की बानियों का एक संग्रह संपादित किया है जो नागरी-प्रचारणी सभा की बिड़ला-ग्रंथमाला में प्रकाशित हो रहा है। ___ ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में कलचुरिवंश के राजा लोग भी परम शैव थे। युवराज देव के राज्य मे पाशुपतो के कालामुख संप्रदाय का बड़ा मान था। युवराज देव ने रीदों के पास स्थित गोरगी (गोलगिरि, गोलकी) नामक स्थान पर एक विशाल शैवमठ की स्थापना कराई थी जिसकी शाखा सुदूर दक्षिण तक फैली हुई थी। मद्रासप्रान्त के मलकापुरन ग्राम के एक शिलालेख से पता चलता है कि गंगा और नर्मदा के अन्तराल में डाहल देश (वर्तमान बुन्देलखंड) है | उसमें सद्भावशंभु नाम के शैव साधु थे, जिन्हें कलचुरि राजा युवराजदेव ने तीन लाख गॉवों का एक प्रदेश मिक्षा में दिया था। उसी में गोलकी या गोलगिरी मठ की स्थापना हुई थी। इस मठ के माध्यम से दक्षिण और उत्तर के शैवमतों में संबंध स्थापित हुआ था। कहते हैं, त्रिपुरी के पास जो चौंसठ योगिनियों का मन्दिर है, वह भी किसी समय इसी मठ की शाखा रहा होगा । (दे०-ना०प्र० पत्रिका, भाग ६, अंक ४ में रायबहादुर हीरालाल का लेख)। कलचुरियों का सबसे प्रतापी राजा कर्ण परम शैव था। उसने काशी में बारहमंजिलाशिवमंदिर बनवाया था, जिसका नाम कर्णमेस्रनाथा। उसने काशी को अपनी राजधानी भी बनाना चाहा था; परन्तु किसी कारणवश उसकी मनःकामना पूर्ण नहीं हुई और वह काशी छोड़ने को बाध्य हुश्रा। उसके साथ आए हुए ब्राह्मण अब भी काशी और सरयू पार में प्रतिष्ठित हैं। गाहडवाल राजाओं की सत्ता स्थापित होने के बाद इस मत को कोई क्षति नहीं पहुंची, सहायता ही मिली। सिद्धियों के प्रति लोगों का विश्वास दृढ़ ही हुश्रा । उत्तर और दक्षिण से शैव-साधना की लहरे आती रहीं और एक दूसरे को बल देती रहीं। कर्ण के दरबार में (ग्यारहवीं शती का उत्तरार्द्ध) अपन्नश-कवियों का सम्मान था ।