पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/६८

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तृतीय व्याण्यांन इस प्रकार, कविरावजी का मत है कि, यही चार छद रासो के मूल छंद है। बाकी सभी प्रक्षित हैं। यह विश्वास किया जा रहा है कि, इस बात को स्वीकार कर लेने पर, रासो की ऐतिहासिकता पर श्रॉच नहीं आएगी। कविरावजी का लेख भी राजस्थान-भारती मे छप रहा है। जब वह पूरा प्रकाशित हो जायगा तो उसपर पडितों की बहस शुरू होगी। अभी यहाँ उस झगडे मे पडे बिना भी हम आसानी से समझ सकते हैं कि ये चार छंद यदि रासो के मूल छद हो भी तो यह मानने मे काफी कठिनाई बनी रहेगी कि प्रक्षेप करनेवालों ने इन छन्दों में रचना करके कुछ प्रक्षेप किया ही नहीं होगा। ये छद अपभ्रंश के बहुत पुराने और परिचित छंद हैं, प्रक्षेप करनेवालों ने इन छंदों का भी उपयोग किया ही होगा और बाकी छदों को रासो से निकाल भी दें तो प्रक्षेप की समस्या हल नहीं हो जाएगी। रासो के कुछ अंशुद्ध बताए जानेवाले संवत् दोहा और छप्पय छंदों में ही हैं। दोहा-जैसे छद को प्रक्षेप करनेवासे कैसे भूल सकते हैं । दोहा तो अपभ्रंश का अत्यन्त लाडला छंद है। अपभ्रंश-रचना को दोहावध कहने की प्रथा भी रूढ़ हो गई थी। और फिर पद्धड़ियाबंध भी उन दिनों की कथाओं की विशिष्ट पद्धति बन गया था। यह भी कैसे मान ले कि पद्धडिया को चद-जैसे कवि ने अपने काव्य का छंद चुना ही नहीं होगा। लेकिन जैसा कि मैंने अभी कहा है, इस विवाद में पड़ना व्यर्थ है । रासो में इतिहास की संगति खोजने का प्रयास ही वेकार है । हम आगे इस बात पर थोड़ा विस्तारपूर्वक विचार करने का अवसर पाएँगे। एक ध्यान देने योग्य मजेदार बात यह है कि प्रायः सभी चरितकाव्यों ने अपनेको 'कथा' कहा है। पुराने साहित्य मे कथा शब्द का व्यवहार स्पष्टरूप से दो अर्थों मे हुश्रा है। एक तो साधारण कहानी के अर्थ में और दूसरा अलंकृत काव्यरूप के अर्थ मे । साधारण कहानी के अर्थ मे तो पंचतंत्र की कथाएँ भी कथा हैं, महाभारत और पुराणों के आख्यान भी कथा हैं और सुबाहु की वासवदत्ता, बाण की कादंबरी, गुणाच्य की बृहत्कथा आदि भी कथा हैं। परन्तु विशिष्ट अर्थ में यह शब्द अलंकृत गद्यकाव्य के लिये प्रयुक्त हुआ है। कब से यह इस अर्थ में चलने लगा, यह कह सकना थोडा कठिन ही है । भामह और दण्डी ने अलंकृत गद्यकाव्य के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है। दण्डी तो स्वयं इस प्रकार के अलंकृत गद्य के लेखक भी हैं। उनके बहुत पहले से ही श्रलंकृत गद्यकाव्य लिखे जाने लगे थे। महाक्षत्रप रुद्रदामा ने अपने को गद्य-पद्य और श्रलंकार का ज्ञाता ही नहीं कहा है, उनके द्वारा खुदवाया हुआ गिरनारवाला शिलालेख स्वयं ही गद्यकाव्य का एक अच्छा नमूना है। इसलिये इतना तो निश्चित है कि अलकृत गद्य लिखने की प्रथा बहुत पहले से विद्यमान थी। मामह और दण्डी ने लक्ष्य को देखकर ही लक्षण बनाए होंगे। उनके अपने वक्तव्यों से ही स्पष्ट है कि वे प्राकृत और अपन श भाषा मे लिखे गए काव्यों से परिचित थे। प्राकृत के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कथाकाव्य को वे कैसे भूल सकते थे ! इसलिये कथा का लक्षण लिखते समय उनके सामने प्राकृत और सस्कृत की कथा-पुस्तकें अवश्य वर्तमान थीं। चरितकाव्य को कथा कहने की प्रणाली बहुत याद तक चलती रही। तुलसीदासजी का रामचरितमानस 'चरित' तो है ही, कथा मी है। उन्होंने कई बार इसे कथा कहा है। विद्यापति ने अपनी छोटी सी