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कृष्णभक्ति-शाखा

इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्टजी के पास यह श्लोक लिख भेजा।

अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्ममनाश्रित्य वृंदाटवीं तत्पदाङ्कम्।
असम्भाष्य तद्भावगम्भीरचितान् कुतःश्यामसिन्धोःरसस्यावगाहः॥

यह श्लोक पढ़कर भट्टजी मूर्च्छित हो गए। फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। इस वृत्तांत को यदि ठीक माने तो इनकी रचनाओं का आरंभ १५८० से मानना पड़ता है और अंत संवत् १६०० के पीछे। इस हिसाब से इनकी रचना का प्रादुर्भाव सूरदासजी के रचनाकाल के साथ साथ अथवा उससे भी कुछ पहले से मानना होगा।

संस्कृत के चूडांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पद-विन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृत-गर्भित भाषा-कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं––

जयति श्रीराधिके, सकल-सुख-साधके,
तरुनि-मनि नित्य नवतन किसोरी।
कृष्णतन-लीन-मन, रूप की चातकी,
कृष्ण-मुख हिम-किरन की चकोरी॥
कृष्ण-दृग-भृंग विश्राम हित पद्मनी,
कृष्ण-दृग-मृगज-बंधन सुडोरी।
कृष्ण-अनुराग-मकरंद की मधुकरी,
कृष्ण-गुण-गान-रससिंधु बोरी॥
विमुख पर चित्त तें चित्त जाको सदा,
करति निज नाह की चित्त चोरी।
प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे बनै,
अमित महिमा, इतै बुद्धि थोरी॥


झूलति नागरि नागर लाल।
मंद मंद सब सखीं झुलावति, गावति गीत रसाल॥