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कृष्णभक्ति-शाखा

इसपर गोस्वामीजी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा था––

जाके प्रिय न राम वैदेही।
सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही॥
नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ-लौं।
अंजन कहा आँखि जौ फूटै, बहुतक कहाँ कहाँ लौं।

पर मीराबाई की मृत्यु द्वारका में संवत् १६०३ में हो चुकी थी। अतः यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर चल पड़ी।

मीराबाई की उपासना 'माधुर्य' भाव की थी अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है[१]। इसी ढंग की उपासना का प्रचार सूफी भी कर रहे थे अतः उनका संस्कार भी इन पर अवश्य कुछ पड़ा। जब लोग इन्हें खुले मैदान मंदिरों में पुरुषों के सामने जाने से मना करते तब ये कहतीं कि 'कृष्ण के अतिरिक्त और पुरुष है कौन जिसके सामने मैं लज्जा करूँ?' मीराबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यासजी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है। इनके पद कुछ तो राजस्थानी मिश्रित भाषा में हैं और कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में। पर सब में प्रेम की तल्लीनता समान रूप से पाई जाती है। इनके बनाए चार ग्रंथ कहे जाते हैं––नरसीजी का मायरा, गीत-गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद।

इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं––

बसो मेरे नैनन में नँदलाल।
मोहनि मूरति, साँवरि सूरति, नैना बने रसाल॥
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुन तिलक दिए भाल॥
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल॥
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्तबछल गोपाल॥



  1. देखो पृ॰ १५९।