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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

(१६) कादिर––कादिरबख्श पिहानी जिला हरदोई के रहनेवाले और सैयद इब्राहीम के शिष्य थे। इनका जन्म सं० १६३५ में माना जाता है अतः इनका कविता काल सं० १६६० के आसपास समझा जा सकता है। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती पर फुटकल कवित्त पाए जाते हैं। कविता ये चलती भाषा में अच्छी करते थे। इनका यह कवित्त लोगों के मुँह से बहुत सुनने में आता है––

गुन को न पूछै कोऊ, औगुन की बात पूछै,
कहा भयो दई! कलिकाल यों खरानो है।
पोथी औ पुरान-ज्ञान ठट्टन में डारि देत,
चुगुल चबाइन को मान ठहरानो है॥
कादिर कहत यासों कछु कहिबे को नाहिं,
जगत की रीत देखि चुप मन मानो है।
खोलि देखौ हियौ सब ओरन सो भाँति भाँति,
गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है॥

(१७) मुबारक––सैयद मुबारक अली बिलग्रामी का जन्म सं० १६४० में हुआ था, अतः इनका कविताकाल सं० १६७० के पीछे मानना चाहिए।

ये संस्कृत, फारसी और अरबी के अच्छे पंडित और हिंदी के सहृदय कवि थे। जान पड़ता है, ये केवल शृंगार की ही कविता करते थे। इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है। कहा जाता है कि दस अंगों को लेकर इन्होंने एक एक अंग पर सौ सौ दोहे बनाए थे। इनका प्राप्त ग्रंथ "अलक-शतक और तिल-शतक" उन्हीं के अंतर्गत है। इन दोहो के अतिरिक्त इनके बहुत से कवित्त सवैये संग्रह-ग्रंथों में पाए जाते और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं। इनकी उत्प्रेक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी होती थी और वर्णन के उत्कर्ष के लिये कभी कभी ये बहुत दूर तक बढ़ जाते थे। कुछ नमूने देखिए––

(अलक-शतक और तिल-शतक से)

परी मुबारक तिय-बदन अलक ओट अति होय।
मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोय॥