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रीति-ग्रंथकार कवि

अबतक नाम लेने योग्य कल्पित प्रबधकाव्य था। अतः सोमनाथजी को यह प्रयत्न उनके दृष्टि-विस्तार का परिचायक है। नीचे सोमनाथजी की कुछ कविताएँ दी जाती है––

दिसि विदिसन तें उमडि मढ़ि लीनो नभ,
छाँडि दीने धुरवा जवासै-जूथ जरि गे।
डहडहे भए द्रुम रंचक हवा के गुन,
कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरि गे॥
रहि गए चातक जहाँ के तहाँ देखत ही,
सोमनाथ कहै बूँदाबूँदि हूँ न करि गे।
सोर भयो घोर चारों ओर महिमंडल में,
'आए, घन, आए घन', आयकै उवरि गे‍॥


प्रीति नई निंत कीजत है, सब सों छलि की बतरानि परी है।
सीखी डिठाई कहाँ ससिनाथ, हमैं दिन द्वैक तें जानि परी है॥
और कहा लहिए, सजनी! कठिनाई गरै अति आनि परी है।
मानत है बरज्यों न कछु अब ऐसी सुजानहिं बानि परी है॥


झमकतु बदन मतंग कुंभ उत्तंग अंग बर।
बंधन बलित भुसुंड कुंडलित सुंड सिद्धिधर॥
कंचन मनिमय मुकुट जगमगै सुधर सीस पर।
लोचन तीनि बिसाल चार भुज ध्यावत सुर नर॥
ससिनाथ नंद स्वच्छंद निति कोटि-बिघन-छरछंद-हर।
जय बुद्धि-बिलंब अमंद दुति इंदुभाल आंनदकर॥

(२९) रसलीन––इनका नाम सैयद गुलाम नबी था। ये प्रसिद्ध बिलग्राम (जि॰ हरदोई) के रहने वाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान् मुसलमान होते आए हैं। अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े संमान की बात यहाँ के लोग समझते थे। गुलाम नबी ने अपने पिता का नाम बाकर लिखा