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रीतिकाल के अन्य कवि

आनँद के घन प्रान-जीवन सुजान बिना,
जानि कै अकेली सब घेरो-दल जोरि लै।
जौ लौं करैं आवन विनोद-बरसावन वे,
तौ लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लै॥

इस प्रकार की सरल रचनाओं में कहीं-कहीं नाद-व्यंजना भी बड़ी अनूठी है। एक उदाहरण लीजिए––

ए रे बीर पौन! तेरो सबै और गौन, वारि
तो सों और कौन मनै ढरकौहीं बानि दै।
जगत के प्रान, ओछे बडे़ को समान, घन
आनंद-निधान सुखदान दुखियानि दै॥
जान उजियारे, गुन-भारे अति मोहि प्यारे
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचान दै।
बिरह बिथा को मूरि आँखिन में राखौं पूरि,
धूरि तिन्ह पायँन की हा हा! नैकु आनि दै॥

ऊपर के कवित्त के दूसरे चरण में आए हुए "आनँद-निधान सुखदान दुखियानि दै" में मृदंग की ध्वनि का बड़ा सुंदर अनुकरण हैं।

उक्ति का अर्थगर्भव भी धनानंद का स्वतंत्र और स्वावलंबी होता है, बिहारी के दोहों के समान साहित्य की रूढ़ियों (जैसे, नायिकाभेद) पर आश्रित नहीं रहता। उक्तियो की सांगोपांग योजना या अन्विति इनकी निराली होती है। कुछ उदाहरण लीजिए––

पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यो।
ताही के चारु चरित्र विचित्रनि यों पचि कै रचि राखि विसेख्यो॥
ऐसो हियो-हित-पत्र पवित्र जो आन कथा न कहूँ अवरेख्यो।
सो घन-आनँद जान अजान लौं टूक कियो,पर वाँचि न देख्यो॥


आनाकानी आरसी निहारिबो करोगे कौलो?
कहा भो चकित दसा त्यों न दीठि डोलि है?