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हिंदी-साहित्य का इतिहास

उपर कहा जा चुका है कि गोरखनाथ की हठयोग-साधना ईश्वरवाद को लेकर चली थी अतः उसमें मुसलमानों के लिये भी आकर्षण था । ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिये एक सामान्य साधना के रूप में आगे रखा जा सकता है, यह बात गोरखनाथ को दिखाई पड़ी थी। उसमें मुसलमानों को अप्रिय मूर्तिपूजा और बहुदेवोपासना की आवश्यकता न थी । अतः उन्होंने दोनों के विद्वेश-भाव को दूर करके साधना का एक सामान्य मार्ग निकालने की संभावना समझी थी और वे उसका संस्कार अपनी शिष्य-परंपरा में छोड गए थे । नाथसंप्रदाय के सिद्धांत-ग्रंथो में ईश्वरोपासना के बाह्य विधान के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई है, घट के भीतर ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है, वेद शास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ठहराकर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई है, तीर्थाटन आदि निष्फल कहे गए हैं।

१. योगशास्त्र पठेन्नित्यं किमन्यैः शास्त्र-विस्तरैः ।
२. न वेदो वेद इत्याहुर्वेदा वेदो निगद्यते ।
परमात्मा विद्यते येन स वेदो वेद उच्यते ।
न संध्या संधिरित्याहुः संध्या संधिर्निगद्यते ।
सुषुम्णा संधिमः प्राणः सा संध्या सधिरुच्यते ।।}}

अंतस्साधना के वर्णन में हृदय दर्पण कहा गया है जिसमें आत्मा के स्वरूप का प्रतिबिंब पड़ता है-

३. हृदयं दर्पणं यस्य मनस्तत्र विलोकयेत् ।
दृश्यते प्रतिबिंबेन आत्मरूपं सुनिश्चितम् ।।

परमात्मा की अनिर्वचनीयता इस ढंग से बताई गई है-

शिवं न जानामि कथं वदामि । शिव च जानामि कथं वदामि ॥

इसके संबंध में सिद्ध लुहिपा भी कह गए हैं---

भाव न होइ, अभाव न होइ । अइस संबोहे को पतिआइ ?

'नाद' और 'बिंदु' संज्ञाएँ वज्रयान सिद्धों में बराबर चलती रही । गोरखसिद्धांत में उनकी व्याख्या इस प्रकार की गई है---