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अपभ्रंश काल

नाथाशो नादो, नादाशः प्राणे; शक्त्यशो बिन्दु, विन्दोराश: शरीरम्।

 

––गोरक्षसिद्भातसंग्रह

(गोपीनाथ कविराज संपादित)

'नाद' और 'बिंदु' के योग से जगत् की उत्पत्ति सिद्ध और हठयोगी दोनो मानते थे।

तीर्थाटन के संबंध में जो भाव सिद्धो का था वहीं हठयोगियों का भी रहा। 'चित्तशोधन प्रकरण' में बज्रयानी सिद्ध आर्यदेव (कर्णरीपा) का वचन है––

प्रतरन्नपि गंगायां नैव श्वा शुद्धिमर्हति।
तस्माद्धर्मधिया पुंसां तीर्थस्नानं तु निष्फलम्॥
धर्मो यदि भवेत् स्नानात् कैवर्तानां कृतार्थता।
नक्तं दिवं प्रविष्टाना मत्स्यादीनौ तु का कथा॥

जनता के बीच इस प्रकार के भाव क्रमशः ऐसे गीतो के रूप में निर्गुणपंथी संतों द्वारा आगे भी बराबर फैलते रहे, जैसे––

गंगा के नहाए कहो को नर तरिगे, मछरी न तरी, जाको पानी में घर है

यहाँ पर यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि ८४ सिद्धों में बहुत से मछुए, चमार, धोवी, डोम, कहार, लकड़हारे, दरजी तथा और बहुत से शूद्र कहे जाने वाले लोग थे। अतः जाति-पाँति के खंडन तो वे आप ही थे। नाथसंप्रदाय भी जब फैला तब उसमे भी जनता की नीची और अशिक्षित श्रेणियों के बहुत से लोग आए जो शास्त्रज्ञान-संपन्न न थे, जिनकी बुद्धि का विकास बहुत सामान्य कोटि का था[१]। पर अपने को रहस्यदर्शी प्रदर्शित करने के लिये शास्त्रज्ञ पंडितो और विद्वानो को फटकारना भी वे जरूरी समझते थे। सद्गुरु का माहात्म्य सिद्धों में भी और उनमें भी बहुत अधिक था।

नाथ-पंथ के जोगी कान की लौ में बड़े बड़े छेद करके स्फटिक के भारी भारी कुंडल पहनते हैं, इससे कनफटे कहालते हैं। जैसा पहले कहा जा चुका


  1. The system of mystic culture introduced by Gorakhnath does not seem to have spread widely through the educated classes.

––Saraswati Bhawan Studies

(by Gopinath Kaviraj & Jha)