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अपभ्रंश काल


(वेश-विशिष्टो को वारिए अर्थात् बचाइए, यदि मनोहर गात्र हो तो भी। गंगाजल से धोई कुतिया क्या पवित्र हो सकती है?)

पिय हउँ थक्किय सयलु दिणु तुह बिरहग्गि किलंत।
थोड़इ जल जिम मच्छलिय तल्लोविल्ली करंत॥


(हे प्रिय! मैं सारे दिन तेरी विरहाग्नि में वैसे ही कड़कड़ाती रही, जैसे थोडे़, जल में मछली तलबेली करती है।)

जैनाचार्य्य मेरुतुंग––इन्होंने संवत् १३६१ में 'प्रबंधचिंतामणि' नामक एक संस्कृत ग्रंथ 'भोज-प्रबंध' के ढंग का बनाया, जिसमें बहुत से पुराने राजाओं के आख्यान संगृहीत किए। इन्हीं आख्यानों के अंतर्गत बीच-बीच में अपभ्रंश के पद्य भी उद्धृत हैं जो बहुत पहले से चले आते थे। कुछ दोहे तो राजा भोज के चाचा मुंज के कहे हुए है। मुंज के दोहे अपभ्रंश या पुरानी हिंदी के बहुत ही पुराने नमूने कहे जा सकते है। मुंज ने जब तैलंग देश पर चढ़ाई की थी तब वहाँ के राजा तैलप ने उसे बंदी कर लिया था और रस्सियों से बाँधकर अपने यहाँ ले गया था। वहाँ उसके साथ तैलप की बहिन मृणालवती से प्रेम हो गया। इस प्रसंग के दोहे देखिए––

झाली तुट्टो किं न मुउ, किं न हुएउ छरपुंज।
हिंदइ दोरी बँधीयउ जिम मकड़ तिम मुंज॥


(टूट पड़ी हुई आग से क्यो न मरा? क्षारपुंज क्यों न हो गया? जैसे डोरी में बँधा बंदर वैसे घूमता है मूंज।)

मुंज भणइ, मुणालवइ? जुब्बण गयु न झूरि।
जइ सक्कर सय खंड थिय तो इस मीठी चूरि॥


(मुंज कहता है, हे मृणालवति! गए हुए यौवन को न पछता। यदि शर्करा के सौ खण्ड हो जाय तो भी वह चूरी हुई ऐसी ही मीठी रहेगी।)

'जा मित पच्छइ संपजइ सा मति पहिली होइ।
मुंज भणई मुणालवई! विघन न बेढइ कोई॥


(जो मति या बुद्धि पीछे प्राप्त होती है यदि पहले हो तो मुंज कहता है, हे मृणालवति! विघ्न किसी को न घेरे।)

'बाह बिछोड़बि जिह तुहुँ, हउँ तेवहँ का दोसु।
हिअयट्ठिय जइ नीसरहि, जाणउँ मुंज सरोसु॥