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अपभ्रंश काल

नूनं बादंल छाई खेह, पसरी निःश्राण शब्द: खरः ।
शत्रु' पाहि लुटालि तोड़ हनिसौः एवं भणनतयुद्भटा: ॥
झूठे गर्वभरा मघालि सहसो रे कंत मेरे कहे ।
कंठे पारा निवेश जाह् शरणं श्रीमजदेव विभुम् ।।

परम्परा से प्रसिद्ध है कि शाङ्गधर ने “हम्मीर रासो' नामक एक वीरगाथा काव्य की भी भाषा में रचना की थी। यह काव्य आजकल नहीं मिलता- उसके अनुकरण पर बहुत पीछे का लिखा हुआ। एक ग्रंथ 'हम्मीर राखो' नाम को मिलता है । ‘प्राकृत पिंगल-सूत्र' उलटते पलटते मुझे हम्मीर की चढाई, वीरता आदि के कई पद्य छंदों के उदाहरणों में मिले । मुझे पूरा निश्चय है कि ये पद्म अमली ‘हम्मीर रासो' के ही है । अतः ऐसे कुछ पद्य नीचे दिए जाते है-

ढोला मारिय ढ़ील्ली मह मुच्छिउ मेच्छ-सरीर ।
षुर जजल्ला मंतिवर चलिअ बीर हम्मीर ।।
चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपइ ।
दिगमग णह अंधार धूलि सुररह अच्छाइहि ॥
दिगमग णह अंधार आण खुरसाणुक उल्ला ।
दरमरि दमसि विपक्ख मारु ढिली मह - ढोल्ला ।।

( दिल्ली में ढोल बजाया गया, म्लेच्छों के शरीर मूर्छित हुए। आगे मंत्रिवर जज्जल को करके वीर हम्मीर चले | चरणो के भार से पृथ्वी कॉपती है । दिशा के माग और आकाश में अँधेरा हो गया है; धूल सूर्य के रथ को आच्छादित करती है । ओल मे खुरासानी ले आए। विपक्षियो को दलमल कर दबाया, दिल्ली मे ढोल बजाया। )

पिंधउ दिढ सन्नाह, बाह उपरि पक्खर दई ।
बंधु समदि रण धासेऊ साहिं हन्मीर बअण लइ ।।
उङडुङ णहपह भमउँ,, खग्ग रिपु-सांसहि झलउँ ।
पक्खर पक्खर ठेल्लि पेल्लि पब्बअ - अप्फालउँ ।।
हुन्मीर कब्ज जज्जल भणइ कोहाणल मह मइ जलउँ ।
सुलितान-सीस करवाल दइ तज्जि कलेवर दिअ चलउँ ।