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इन्ही बारह पुस्तकों की दृष्टि से 'आदिकाल' का लक्षण-निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमे से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं। अतः आदिकाल का नाम 'वीरगाथा-काल' ही रखा जा सकता है। जिस सामाजिक या राजनीतिक परिस्थिति की प्रेरणा से वीरगाथाओं की प्रवृत्ति रही है उसका सम्यक् निरूपण पुस्तक में कर दिया गया है।

मिश्रबंधुओं ने इस 'आदिकाल' के भीतर इतनी पुस्तकों की और नामावली दी है---

१ भगवद्गीता
२ वृद्ध नवकार
३ वर्त्तमाल
४ समतसार
५ पत्तलि
६ अनन्य योग
८ रैवतगिरि रासा
९ नेमिनाथ चउपई
१० उवएस-माला (उपदेशमाला)
इनमें से नं० १ तो पीछे की रचना है, जैसा कि उसकी इस भाषा से स्पष्ट है--

तेहि दिन कथा कीन मन लाई। हरि के नाम गीत चित आई ।।
सुमिरौं गुरु गोविंद के पाऊँ। अगम अपार है जाकर नाऊँ।।

जो वीररस की पुरानी परिपाटी के अनुसार कहीं वर्णों का द्वित्व देखकर प्राकृत भाषा और कहीं चौपाई देखकर ही अवधी या बैसवाड़ी समझते हैं, जो भाव को 'थाट' और विचार को 'फीलिंग' कहते हैं वे यदि उद्धृत पद्यों को संवत् १००० के क्या संवत् ५०० के भी बताएँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पुस्तक की संवत्-सूचक पंक्ति का यह गड़बड़ पाठ ही सावधान करने के लिये काफी है--"सहस्र सो संपूरन जाना।"