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गद्य-साहित्य का प्रसार

लेखों को जिन्होंने पढ़ा होगा उनके हृदय में उनकी मधुर स्मृति अवश्य बनी होगी। उनके निबंध अधिकतर भावात्मक होते थे और धारा-शैली पर चलते थे। उनमें बहुत सुंदर मर्मपथ का अनुसरण करती हुई स्निग्ध वाग्धारा लगातार चली चलती थी। इनके गद्य के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं––

(क) "आर्य-वंश के धर्म, कर्म अर भक्ति-भाव का वह प्रबल प्रवाह जिसने एक दिन जगत् के बड़े बड़े सन्मार्ग-विरोधी भूघरों का दर्प दलन कर उन्हें रज में परिणत कर दिया था और इस परम पवित्र वंश का वह विश्वव्यापक प्रकाश जिसने एक समय जगत् में अंधकार का नाम तक न छोड़ा था, अब कहाँ है? इस गूढ़ एवं मर्मस्पर्शी प्रश्न का यहीं उत्तर मिलता है कि सब भगवान् महाकाल के पेट में समा गया। x x x जहाँ महा महा महीधर लुढ़क जाते थे और अगाध अंतलस्पर्शी जल था वहाँ अब पत्थरों में दबी हुई। एक छोटी सी किंतु सुशीतल वारिधार बह रही है। जहाँ के महा प्रकाश से दिग्दिगत उद्भासित हो रहे थे वहाँ अब एक अंधकार से घिरा हुआ स्नेहशून्य प्रदीप टिमटिमा रहा है। जिससे कभी-कभी यह भूभाग प्रकाशित हो जाता है। x x x भारतवर्ष की सुखशांति और भारतवर्ष का प्रकाश अब केवल राम नाम पर अटक रहा है। x x x पर जो प्रदीप स्नेह से परिपूर्ण नहीं है तथा जिसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है, वह कब तक सुरक्षित रहेगा?"

(ख) अब रही आपके जानने की बात, सो जहाँ तक आप जानते हैं वहाँ तक तो सब सफाई है! आप जहाँ तक जानते हैं, महाकवि श्रीहर्ष के काव्य में 'सर्वत्र गाँठै ही गाँठै हैं और पं॰ श्रीधरजी की कविता 'सर्वतो भाव से प्रशंसित' है। आप जहाँ तक जानते हैं, आप संस्कृत, हिंदी, बँगला आदि इस देश की सब भाषाएँ जानते है और हम वेबर साहब की करतूत से भी अनभिज्ञ हैं। आप जहाँ तक जानते हैं, श्रीहर्ष, 'लाल बुझक्कड़ को भी मात करता है' और वेबर साहब याझवल्क्य के समान ठहरता है? आप जहाँ तक जानते हैं, हमारे तत्वदशी पंडितों ने कुछ न लिखा और अँगरेजों ने इतना लिखा कि भारतवासी उनके ऋणी हैं। आप जहाँ तक जानते हैं, नैषध की प्रशंसा तो सब पक्षपाती पंडितों ने की है और निंदा दुराग्रह-रहित पुरुषों ने की है। आप जहाँ तक जानते हैं डाक्टर बूलर, हाल आदि साहबों ने जो कुछ लिखा है युक्तिपूर्वक लिखा है और मिश्र राधाकृष्ण ने युक्तिशून्य। आप जहाँ तक जानते हैं, प्रोफेसर वेबर की पुस्तक का अभी तक अनुवाद नहीं हुआ और बेवर साहब का ज्ञान हमें 'नैषध-चरित-चर्चा' से हुआ है।

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