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हिंदी-साहित्य का इतिहास

(ग) लोग केवल घर ही के नष्ट होने पर 'मिट्टी हो गया' नहीं कहते हैं और और जगह भी इसका प्रयोग करते हैं। किसी का जब बड़ा भारी-श्रम विफल हो जाय तब कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। किसी का धन खो जाय, मान-मर्यादा भंग हो जाय, प्रभुता और क्षमता चली जाय तो कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। इससे जाना गया कि नष्ट होना ही मिट्टी होता है। किंतु मिट्टी को इतना बदनाम क्यों किया जाता है? अकेली मिट्टी ही इस दुर्नाम को क्यों धारण करती है? क्या सचमुच मिट्टी इतनी निकृष्ट है? और क्या केवल मिट्टी ही निकृष्ट हैं, हम निकृष्ट नहीं हैं? भगवती वसुंधरे! तुम्हारी 'सर्वसहा' नाम यथार्थ है।

अच्छा मां! यह तो कहो तुम्हारा नाम 'वसुंधरा' किसने रखा? यह नाम तो उस समय का हैं। यह नाम व्यास, वाल्मीकि, पाणिनि, कात्यायन आदि सुसंतानों का दिया हुआ है। जाने वे तुम्हारे सुपुत्र कितने आदर से, कितनी श्लाघा से और श्रद्धा से तुम्हें पुकारते थे।

उपन्यासों से कुछ छुट्टी पाकर बाबू गोपालरास (गहमर निवासी) पत्र-पत्रिकाओं में कभी कभी लेख और निबंध भी दिया करते थे। उनके लेखो और निबधों की भाषा बड़ी चंचल, चटपटी, प्रगल्भ और मनोरंजक होती थी। विलक्षण रूप खड़ा करना उनके निबंधों की विशेषता है। किसी अनुभूत बात का चरम दृश्य दिखानेवाले ऐसे विलक्षण और कुतूहलजनक चित्रों के बीच से वे पाठक को ले चलते हैं कि उसे एक तमाशा देखने का सा आनंद आता है। उनके "ऋद्धि और सिद्धि" नामक निबंध का थोड़ा सा अंश उद्ददृत किया जाता है––

"अर्थ या धन अलाउद्दीन का चिराग है। यदि यह हाथ में है तो तुम जो चाहो पा सकते हो। यदि अर्थ के अधिपति हो तो ब्रज मूर्ख होने पर भी विश्वविद्यालय तुम्हे डी॰ एल॰ की उपाधि देकर अपने नई वन्य समझेगा। x x x बरहे पर चलनेवाला नन्हें हाथ में बाँस लिए हुए रास्ते पर दौड़ते समय, 'हाय पैसा, हाय पैसा' करके चिल्लाया करता है। दुनिया के सभी आदमी वैसे ही नट हैं। मैं दिव्य दृष्टि से देखता हूँ कि खुद पृथ्वी भी अपने रास्ते घर 'हाय पैसा, हाय पैसा' करती हुई सूर्य की परिक्रमा कर रही है।

काल माहाल्य और दिनों के फेर से ऐश्वर्यशाली भगवान् ने तो अब स्वर्ग से उतरकर