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गद्य-साहित्य का प्रसार

कुछ कहा नहीं जाता। हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। गैरों ने तो गाँठ का कुछ न दिया, पर इन्होंने तो अच्छे अच्छे शब्द छीन लिए। इसी से कहते हैं कि "मारेसि मोहिं कुठाऊँ"। अच्छे-अच्छे पद तो यो सफाई से ले लिए है कि इस पुरानी जमी हुई दूकान का दिवाली निकल गया है।

हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, हिंदू कहते है। x x x और तो क्या 'नमस्ते' को वैदिक फिकरा हाथ से गया। चाहे 'जय रामजी' कह लो चाहे 'जय श्रीकृष्ण', नमस्ते मत कह बैठना। ओंकार बड़ा मांगलिक, शब्द है। कहते हैं कि पहले यह ब्रह्मा का कंठ फाड़कर निकला था।

इस द्वितीय उत्थान के भीतर हम दो ऐसे निबंध-लेखको का नाम लेते हैं। जिन्होंने लिखा तो कम है पर जिनके लेखों में भाषा की एक नई गति-विधि तथा आधुनिक जगत् की विचारधारा से उद्दीप्त नूतन भाव-भंगी के दर्शन होते हैं। 'सरस्वती' के पुराने पाठकों में से बहुतों को अध्यापक पूर्णसिंह के लेखो का स्मरण होगा। उनके तीन-चार निबंध ही उक्त पत्रिका में निकले, उनमें विचारों और भावों को एक अनूठे ढंग से मिश्रित करने वाली एक नई शैली मिलती है। उनकी लाक्षणिकता हिंदी गद्य साहित्य में एक नई चीज थी। भाषा की बहुत कुछ उड़ान, उसकी बहुत कुछ शक्ति, 'लाक्षणिकता' में देखी जाती है। भाषा और भाव की एक नई विभूति उन्होंने सामने रखी। योरप के जीवन-क्षेत्र की अशांति से उत्पन्न अध्यात्मिकता की, किसानो और मजदूरो की महत्व-भावना की जो लहरे उठीं उनमें वे बहुत दूर तक बहे। उनके निबंध भावात्मक कोटि मे ही आएँगे यद्यपि उनकी तह में क्षीण विचारधारा स्पष्ट लक्षित होती है। इस समय उनके तीन निबंध हमारे सामने हैं "आचरण की सभ्यता" "मजदूरी और प्रेम" और "सच्ची वीरता"। यहाँ हम उनके निबधों से कुछ अंश उद्धृत करते हैं––

'आचरण की सभ्यता' से

"पश्चिमी ज्ञान से मनुष्य मात्र को लाभ हुआ हैं। ज्ञान का वह सेहरा––बाहरी सभ्यता की अंतवर्त्तनी आध्यात्मिक सभ्यता का वह मुकुट––जो आज मनुष्य जाति ने पहन रखा है, युरोप को कदापि प्राप्त न होता, यदि धन और तेज को एकत्रित करने के