पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/६०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५८३
पुरानी धारा

बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें उन्होंने बिहारी के दोहों के भाव बड़ी मार्मिकता से पल्लवित किए हैं। डुमराव-निवासी पंडित नकछेदी तिवारी (अजान) भी इस रसिक-मंडली के बड़े उत्साही कार्यकर्ता थे। वे बड़ी सुंदर कविता करते थे और पढ़ने का ढंग तो उनका बड़ा ही अनूठा था। उन्होंने 'मनोसंजरी' आदि कई अच्छे संग्रह भी निकाले और कवियों का वृक्ष भी बहुत कुछ संग्रह किया। बाबू रामकृष्ण की मंडली में पंडित विजयानंद त्रिपाठी भी ब्रजभाषा की कविता बड़ी अच्छी करते थे।

इस पुरानी धारा के भीतर लाला सीताराम बी॰ ए॰ के पद्यानुवादों को भी लेना चाहिए। ये कविता में अपना 'भूप' उपनाम रखते थे। 'रघुवंश' का अनुवाद इन्होंने दोहा-चौपाइयों में और 'मेघदूत' का घनाक्षरी में किया है।

यद्यपि पंडित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय इस समय खड़ी बोली के और आधुनिक विषयों के ही कवि प्रसिद्ध हैं, पर प्रारंभकाल में ये भी पुराने ढंग की शृंगारी कविता बहुत सुंदर और सरस करते थे। इनके निवासस्थान निजामाबाद में सिख-संप्रदाय के महंत यात्रा सुमेरसिंहजी हिंदी-काव्य के बड़े प्रेमी थे। उनके यहाँ प्रायः कवि समाज एकत्र हुआ करता था जिसमें उपाध्यायजी भी अपनी पूर्तियाँ पढ़ा करते थे। इनका "हरिऔध" उपनाम उसी समय का है। इनकी पुराने ढंग की कविताएँ 'रस-कलश' में संग्रहीत हैं। जिसमें इन्होंने नायिकाओं के कुछ नए ढंग के भेद रखने का प्रयत्न किया है। ये भेद रस-सिद्धांत के अनुसार ठीक नहीं उतरते।

पंडित श्रीधर पाठक का संबंध भी लोग खड़ी बोली के साथ ही अकसर बताया करते हैं। पर खड़ी बोली की कविताओं की अपेक्षा पाठकजी की ब्रजभाषा की कविताएँ ही अधिक सरस, हृदयग्राहिणी और उनकी मधुर-स्मृति को चिरकाल तक बनाए रखनेवाली हैं। यद्यपि उन्होंने समस्यापूर्ति नहीं की, नायिकाभेद के उदाहरणों के रूप में कविता नहीं की, पर जैसी मधुर और रसभरी ब्रजभाषा उनके 'ऋतुसहार' के अनुवाद, में है, वैसी पुराने कवियों में किसी किसी की ही मिलती है। उनके सवैयों में हम ब्रजभाषा का जीता जागता रूप पाते हैं। वर्षाऋतु-वर्णन का यह सवैया ही लीजिए––