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नई धारा


स्वर्गीय लाला भगवानदीन जी के जीवन का प्रारंभिक काल उस बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ था जहाँ देश की परंपरागत पुरानी संस्कृति अभी बहुत कुछ बनी हुई है। उनकी रहन-सहन बहुत सादी और उनका हृदय बहुत सरल और कोमल था। उन्होंने हिंदी के पुराने काव्यों का नियमित रूप से अध्ययन किया था इससे वे ऐसे लोगों से कुढ़ते थे जो परंपरागत हिंदी-साहित्य की कुछ भी जानकारी प्राप्त किए बिना केवल थोड़ी सी, अँगरेजी शिक्षा के बल पर हिंदी-कविताएँ लिखने लग जाते थे। बुंदेलखंड में शिक्षितवर्ग के बीच भी और सर्वसाधारण में भी हिंदी-कविता का समान्य रूप से प्रचार चला आ रहा है। ऋतुओं के अनुसार जो त्योहार और उत्सव रखे गए हैं, उनके आगमन पर वहाँ लोगों में अब भी प्रायः वही उमंग-दिखाई देती है। विदेशी संस्कारों के कारण वह मारी नहीं गई है। लाला साहब वही उमंग-भरा हृदय लेकर छतरपुर से काशी आ रहे। हिंदी-शब्दसागर के संपादकों में एक वे भी थे। पीछे विश्वविद्यलाय में हिंदी के अध्यापक हुए। हिंदी-साहित्य की व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिये काशी में उन्होंने एक साहित्य-विद्यालय खोला जो उन्हीं के नाम से अब तक बहुत अच्छे ढंग पर चला जा रहा है। कविता में वे अपना उपनाप 'दीन' रखते थे।

लालाजी का जन्म संवत् १९२३ में और मृत्यु १९८७ (जुलाई, १९३०) में हुई।

पहले वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की कविता करते थे, पीछे 'लक्ष्मी' के संपादक हो जाने पर खड़ी बोली की कविताएँ लिखने लगे। खड़ी बोली में उन्होंने वीरों के चरित्र लेकर बोलचाल ही फड़कती भाषा में जोशीली रचना की है। खड़ी बोली की कविताओं का तर्ज उन्होंने प्रायः मुंशियान ही रखा था। वह या छंद भी उर्दू के रखते थे और भाषा में चलते अरबी या फारसी शब्द भी लाते थे। इस ढंग के उनके तीन काव्य निकले हैं––'वीर क्षत्राणी', 'वीर बालक' और 'वीर पंचरत्न'। लालाजी पुराने हिंदी-काव्य और साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। बहुत से प्राचीन काव्यों की नए ढंग की टीकाएँ करके उन्होंने अध्ययन के